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________________ Bale । तल से शिखर तक २५७ त्यागने के लिए प्रस्तुत नहीं थे। अन्त में हुआ यह कि डॉक्टर के उसी प्रकार अनाप-शनाप बहुत कुछ बकने के बाद उसने अपने 68Hal कहने पर उन्हें अनशन का त्याग करना पड़ा। साथ लाए हुए आठ-दस आदमियों से कहा-"अब. देखते क्या हो ?EPOPore हा काश। मैंने उपाध्यायी के मशन को यह सीधे से नहीं चलेगा। बाँधो इसे रस्सियों से और उठाकर ले स्वीकार कर लिया होता! चलो।" P00% प्रकाण्ड पांडित्य वे लोग पूरा षड्यन्त्र रचकर आए थे। रस्सियाँ भी लाए थे 5390 और बाँधकर उठा ले जाने के लिए गाड़ी भी। गुरुदेव ने अब उनके सन् १९३७ में मनमाड चातुर्मास के पूर्व शरोही में विदुषी पूरे षड्यन्त्र को समझ लिया और विनोद का त्याग कर गंभीर महासती राजकुंवर जी और जैन जगत की उज्ज्वल तारिका आत्मदृढ़ता से उन्हें ललकारते हुए कहा-'मेरे समीप यदि आए उज्ज्वलकुमारी जी आपसे मिलीं। आपश्री के न्याय, दर्शन के और मुझे हाथ भी लगाने का प्रयास किया तो ठीक नहीं होगाप्रकाण्ड पांडित्य को देखकर वे अत्यधिक प्रभावित हुई और उन्होंने आपश्री से पढ़ने की जिज्ञासा प्रगट की। किन्तु आपश्री का वर्षावास सावधान किए देता हूँ।" मनमाड निश्चित हो चुका था, अतः महासती जी की भावना को उस समय गुरुदेव के चेहरे पर जो आध्यात्मिक तेज प्रगट हो मूर्तरूप प्रदान नहीं किया जा सका। क्योंकि महासती राजकुंवर जी आया था वह दर्शनीय ही था। उस तेज को देखकर वे षड्यन्त्रकारी रुग्ण थीं और वे पृथक् रहने की स्थिति में नहीं थीं। । स्तम्भित रह गए। किन्तु इस एक ही प्रसंग से स्पष्ट है कि न सूर्य का प्रकाश वृद्धा ने भी देखकर और समझ लिया कि गुरुदेव को इस छिपाए छिपता है और न ही पंडितों का पांडित्य। प्रकार-वह और उसके अन्य साथी तो क्या, कोई पूरा सैन्य भी यदि आ जाय तो ले जाना तो दूर, हाथ भी नहीं लगा सकता। तब एक षड्यन्त्र वह अपने षड्यन्त्र की असफलता को देखकर मगरमच्छ के आँसू बात सन १९४० की है। आपश्री का वर्षावास खाण्डप में था। बहाती हुई कहने लगी-'अच्छा बेटा, हम तेरे साथ जबरदस्ती नहीं 50000 एक दिन एक वृद्धा महिला आठ-दस व्यक्तियों को लेकर आई। | करेंगे। तू अपनी इच्छा से ही हमारे साथ चल।' सन्तगण स्वाध्याय में लीन थे। आते ही उस वृद्धा ने कहा-'मेरा पुत्र यहाँ पर है। मैं उसे लेने आई हूँ।' एक तमाशा-सा खड़ा हो गया। बिलकुल बेतुकी और असत्य बात थी। गुरुदेव ने प्रसन्न मुद्रा में संसार में तमाशबीनों की कमी नहीं। विनोद के रूप में कहा-'हम यहाँ तीन साधु हैं। जो भी तुम्हें पसन्द बहुत से लोग कुतूहलवश वहाँ अब तक एकत्रित हो चुके थे। न्य हो, उसी को अपना पुत्र बना लो।' उनमें एक विवेकवान श्रावक श्री रघुनाथमल जी लूंकड़ भी थे।:3 1 किन्तु वह वृद्धा तो षड्यन्त्र रचकर आई थी। उसने तपाक से उन्होंने उन लोगों को समझाया और बताया-'ये इस मुनिजी की कहा-"तू ही मेरा पुत्र है। चल मेरे साथ।" माता नहीं हैं। इनकी जन्मस्थली से आए हुए भक्तगण भी यहाँ दर्शनार्थ आए हुए हैं। उनसे पूछ लो। जैन स्थानक में इस प्रकार गुरुदेव ने कहा-"बड़ा शुभ दिन है आज। माता मिल गई। हाँ, लाठियाँ और रस्सियाँ लेकर आने और षड्यन्त्र रचने के लिए आप इस जन्म में तो नहीं, किन्तु किसी पूर्वजन्म में तू मेरी माता रही लोगों को दण्ड दिया जा सकता है। किन्तु हम लोग क्षमा धर्म को होगी। इसीलिए मुझे देखकर तेरे मन में वात्सल्य उमड़ रहा है।" मानते हैं। जाइये, आप लोगों को गुरुदेवश्री क्षमा करते हैं।" किन्तु वृद्धा को न विनोद को समझना था और न किसी संगत वे लोग लज्जित होकर और उस वृद्धा के षड्यन्त्र को जानकर बात को। वह तो हठ करती हुई बोली-'बेटा! मुझसे मजाक मत कर। चल, चुपचाप घर चल।' चुपचाप क्षमायाचना कर लौट गए। अब स्थिति गंभीर होने लगी तो गुरुदेव ने कहा-"देखो माता, सत्यानाश नहीं, अठ्यानाश तुम्हें कोई भ्रम हो गया है। मैं तुम्हारा पुत्र नहीं हूँ। मेरा जन्म तो गालियों के बीच में भी शान्त रहकर स्नेह वचन ही कहना मेवाड़ में हुआ था और मेरी आँखों के सामने ही मेरी माता का कितना प्रभावी होता है यह बात इस प्रसंग से समझ में आ देहान्त हो गया था। अब तू मेरी नई माता कहाँ से आ गई?" जाती है। लेकिन वृद्धा को तो किसी भी प्रकार से मानना नहीं था। क्रोध सन् १९४२ का वर्षावास रायपुर में था। इस वर्षावास से पूर्व में भरकर, आँखों से अंगार-से बरसाते हुए वह मनगढन्त बात आपश्री जब नाथद्वारा में विराज रहे थे, तब नन्दलाल जी रांका के कहने लगी-“तू झूठ बोलता है। मैं ही तेरी माँ हूँ और जीवित बैठी। पुत्र नजरसिंह ने गुरुदेव से दीक्षा प्रदान करने के लिए प्रार्थना की। हूँ। आज से सोलह-सत्रह वर्ष पूर्व तू घर से भाग गया था और इन किन्तु पारिवारिक जनों की अनुमति के अभाव में आपश्री ने उसे साधुओं के चंगुल में फँसकर साधु बन गया है...।" । दीक्षा नहीं दी। tan education thjemnationel 1990एक Paeseases deorg.36 D 10000RSDAY irealheaterers 2060600OK 9.00000000000000000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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