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________________ OST 3D62306 3.600000000000 alo-9000 । तल से शिखर तक २५३।। सन् १९८२ का वर्षावास जोधपुर में हुआ। इसमें भी आचार्य श्री का आदेश तो प्रत्येक स्थिति में शिरोधार्य किया ही जन्म-जयन्ती के अवसर पर अनेक निर्धनों को पर्याप्त सहयोग जाना था, क्योंकि गुरुओं की आज्ञा अविचारणीय है, उसे टाला ही प्रदान किया गया। इसी अवसर पर “जैन आचार : सिद्धान्त और नहीं जा सकता। अतः आपश्री ने पूना सम्मेलन में पहुँचने की स्वरूप" ग्रन्थ का विमोचन किया गया। इस ग्रन्थ को विद्वानों तथा । स्वीकृति प्रदान कर दी। अन्य सामान्य जन ने भी खूब सराहा। यहाँ तक कि पंडित दलसुख मालवणिया जी ने तो इसे जैनाचार का विश्वकोष तक कहा। पूना-श्रमण सम्मेलन सन् १९८३ का वर्षावास मदनगंज, किशनगढ़ में हुआ। धर्म की खूब प्रभावना के अतिरिक्त इस अवसर पर वहाँ एक पुष्कर समय कम था। गुरु सेवासमिति संस्था गुरुदेव के नाम पर स्थापित हुई। जिसका विहार लम्बा था। विधिवत् उद्घाटन ७ जनवरी, १९७४ को हो गया। चिकित्सालय और सेवा के अन्य अनेक कार्य प्रारम्भ हो गये हैं। वृद्धावस्था थी। इस वर्षावास के पश्चात् जयपुर, दौसा, भरतपुर, आगरा, सभी परिस्थितियाँ प्रतिकूल ही थीं। किन्तु प्रबल पुरुषार्थ के मथुरा, वृन्दावन, फरीदाबाद आदि स्थानों को पावन करते हुए। धनी गुरुदेव श्री सिरोही, आबू रोड, अम्बा जी, बड़ौदा, सूरत, गुरुदेव श्री दिल्ली पधारे और सन् १९८४ का वर्षावास दिल्ली में बारदोली, बासदा एवं सतपुड़ा पर्वतों को पार करते हुए नासिक, ही हुआ। इस वर्षावास में गुरुदेव की जन्म-जयन्ती के अवसर पर संगमनेर होते हुए सम्मेलन के एक दिन पूर्व पूना पहुँच ही गए। भूतपूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह जी ने गुरुदेव को 'विश्व संत' की वृद्धावस्था में इस लम्बे विहार में गुरुदेव श्री को एक-एक दिन गौरवपूर्ण उपाधि से विभूषित किया। एच. के. एल. भगत, जगदीश में २५-२५ किलोमीटर तक की यात्रा भी करनी पड़ी। आचार्य श्री टाइटलर, बलराम जाखड़ आदि विशिष्ट व्यक्ति एवं राजनेतागण के आदेश के पालन हेतु आपश्री ने इस कष्ट को सहर्ष झेला और गुरुदेव की सेवा में उपस्थित हुए। आध्यात्मिक चर्चाएँ हुईं। विशेष एक अभूतपूर्व आदर्श उपस्थित किया कि जो व्यक्ति स्वयं अनुशासन रूप से अहिंसा, नशाबन्दी तथा मांसाहार समाप्ति के प्रचार सम्बन्धी में रह सकता है वही दूसरों को भी अनुशासन में रख सकता है। विचार विमर्श हुए। अनेक शिक्षाविद भी समय-समय पर उपस्थित पूना सम्मेलन दिनांक २/५/८७ को शनिवार को आरम्भ हुआ। होते रहे और गुरुदेव के ज्ञानसागर में से श्रेष्ठ विचारों के यौक्तिक 14 १३/५/८७ तक चला। इस सम्मेलन में १०७ सन्त तथा १५३ ग्रहण करते रहे। महासतियाँ उपस्थित थीं। आचार्य सम्राट् के मंगलाचरण के साथ इस वर्षावास में मंगलपाठ के अवसर पर अपार जन-सागर सम्मेलन का शुभारम्भ हुआ। शान्तिरक्षक के रूप में सभा का उमड़ पड़ता था। जनता को शान्ति प्राप्त होती थी। मंगल पाठ का संचालन सुमन मुनिजी ने किया। इस सम्मेलन की यह प्रमुख समय दिन में ठीक बारह बजे रहता था। विशेषता रही कि जितने भी निर्णय इसमें लिए गए वे सब वहाँ से विहार कर गुरुदेव बड़ौत में दीक्षाओं के अवसर पर सर्वानुमति से लिए गए, तथा इसमें महासती वृन्द को भी बैठने का पहुँचे। उत्तर भारतीय प्रवर्तक शान्तिस्वरूप जी की दीक्षा स्वर्ण अधिकार दिया गया। इतना ही नहीं, कुछ साध्वियाँ प्रतिनिधि के जयन्ती के अवसर पर मेरठ में आपश्री रहे। रूप में भी बैठीं। दिनांक १३ मई को सम्मेलन आचार्य श्री के पुनः दिल्ली पदार्पण हुआ और वहाँ वीरनगर में वर्षावास कर-कमलों से सम्पन्न हुआ। हुआ। सन् १९८५ का वर्षावास दिल्ली में सम्पन्न कर अलवर, इस सम्मेलन में आचार्य श्री आनन्दऋषि जी ने कहा-श्रमण जयपुर, मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर, ब्यावर होते हुए गुरुदेव श्री । संघ एक जयवन्त संघ है। इस संघ की उन्नति हेतु मैं श्री देवेन्द्र मुनि पाली पधारे। इस वर्षावास में पूना सम्मेलन हेतु चर्चा हुई। कॉन्फ्रेन्स शास्त्री को उपाचार्य पद से सुशोभित करता हूँ, तथा श्री शिव मुनि 5000 के अनेक पदाधिकारी आए और उन्होंने गुरुदेव श्री से प्रार्थना की । जी को युवाचार्य पद से। मुझे विश्वास है कि ये दोनों विद्वान मुनि कि वे पूना पधारें। गुरुदेव ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि मेरी । श्रमण संघ के प्रति पूर्ण समर्पित होकर कार्य करेंगे तथा निष्ठापूर्वक EDEO वृद्धावस्था है, अब लम्बा विहार करना सम्भव नहीं। अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करेंगे। bee वर्षावास के पश्चात् आपश्री ने बाड़मेर जिले की ओर प्रस्थान आचार्य श्री तथा संघ का आदेश एवं आग्रह था कि उपाध्याय |किया। वे समदड़ी के सन्निकट पहुँचे थे कि आचार्य सम्राट श्री कुछ समय तक आचार्य श्री की सेवा में रहें। आचार्य श्री के आनन्दऋषि जी महाराज का पत्र लेकर संचालाल जी बाघणा, ज्ञान एवं अनुभव का लाभ प्राप्त करें। अतः आपश्री सात महीने बकंटराज जी कोठारी आदि का शिष्टमंडल पहुँचा और बताया कि तक आचार्य श्री की सेवा में ही रहे। इस अवधि में आपश्री पर त आचार्यश्री का आदेश है, आपश्री को सम्मेलन में पधारना ही है। । आचार्य श्री की पूर्ण कृपा रही। SUPos 808.08. Jaintdession international S OTOROSCORPrivate Permoral use only268 20000000000000000DOOD wwwcainelibrary.org GVOIN
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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