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________________ २४४ 59090000000 00:00.00.00. 0RACat POPos2018 Jads SDESI उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । ध्यान और योग तथा जप-साधना की चर्चा चलने पर । चामुण्डराय, नगचन्द्र, कुमुरेन्दु रत्नाकरवर्णी आदि। शताधिक जैन गुरुदेवश्री ने कहा-ध्यानशतक में आचार्य जिनभद्र ने स्थिर चेतना । लेखक हुए हैं जिन्होंने साहित्य की प्रत्येक विधा में बहुत लिखा है। को ध्यान कहा है और चल चेतना को चित्त कहा है अभी बहुत-सा साहित्य अप्रकाशित पड़ा है। शासन का कर्त्तव्य है "जं स्थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तं चित्तं।" कि ऐसे साहित्य को प्रकाश में लाकर जैनधर्म और संस्कृति के सुनहरे इतिहास को जन-जन के समक्ष प्रस्तुत किया जाय। -ध्यानशतक २१ आचार्य अकलंक ने ध्यान की परिभाषा करते हुए लिखा है पाटिल सा. ने कहा-"मैं स्वीकार करता हूँ। जैन साहित्य जैसे बिना हवा वाले प्रदेश में प्रचलित प्रदीप-शिखा प्रकम्पित नहीं विशाल एवं सारगर्भित है। आपश्री ने मेरा ध्यान इस ओर होती, वैसे ही निराकुल प्रदेश में अपने विशिष्ट वीर्य से सिद्ध आकर्षित किया तदर्थ मैं आभारी हूँ। मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा जिससे अन्तःकरण की वृत्ति एक आलम्बन पर अवस्थित हो जाती है। जैन कन्नड़ साहित्य का अधिक से अधिक प्रसार हो सके।" उनके अभिमतानुसार व्यग्र चेतना ज्ञान है और वही स्थिर होने पर । बाब जगजीवनराम ध्यान है। ___दलितों के मसीहा बाबू जगजीवनराम जी भारत की एक आचार्य रायसेन ने कहा है-एक आलम्बन पर अन्तःकरण की । विभूति थे। वे दिनांक ९-७-१९७८ को दर्शनार्थ एवं विचार-चर्चा वृत्ति का निरोध ध्यान है। हेतु उपस्थित हुए। उस प्रसंग का स्थल राबर्टसनपेठ था। चर्चा के ध्यान चित्त की निर्विकल्प दशा है। वहाँ पर किसी भी दशा में मध्य गुरुदेव श्री ने कहा-भगवान् ऋषभदेव विश्व संस्कृति के मन का लगाव नहीं रहता। एतदर्थ ही आचार्यों ने कहा है-"ध्यान आद्यपुरुष हैं। जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा में ही नहीं, अपितु निर्विषयं मनः"-निर्विषय मन ही ध्यान है। विश्वसंस्कृति में उनका अप्रतिम स्थान है। वे संस्कृतियों के ध्यान से चित्त में जो अनन्त-अनन्त ऊजाएँ प्रसुप्त हैं, वे जागृत संगमस्थल हैं। उनके संबंध में विशद् जानकारी देने हेतु "ऋषभदेवः होकर बहिर्मुखी प्रवाह को अवरुद्ध कर देती हैं। अतः जैन एक परिशीलन" ग्रन्थ प्रदान करते हुए आपश्री ने कहा-ये साधना-पद्धति में ज्ञान और ध्यान पर अत्यधिक बल दिया गया है। राजनीति के आद्यपुरुष हैं। इनसे प्रेरणा प्राप्त कर जनता-जनार्दन के कल्याण हेतु धर्म के पथ पर शासन अग्रसर हो, यही मेरी ध्यान शब्दों का विषय नहीं है। वह शब्दातीत अनुभूति है। इस मंगल-मनीषा है। अरूप अनुभूति को साधकों ने विभिन्न प्रतीकों के द्वारा व्यक्त किया है। जैसे-ध्यान एक अलौकिक मस्ती का नाम है जिसे प्राप्त कर ___ बाबू जगजीवनराम जी को श्री राजेन्द्र मुनि द्वारा रचित ग्रन्थ लेने के पश्चात् 'पर' का बोध नहीं रहता। दूसरे शब्दों में स्वयं में । भी भेंट दिए गए। खो जाने का नाम ध्यान है। बाबूजी को सद्गुरुदेव का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। ध्यान साधना के लिए आहार पर नियंत्रण, शरीर पर पी. रामचन्द्रन नियंत्रण, इन्द्रियों पर नियंत्रण, श्वासोच्छ्वास पर नियंत्रण, भाषा दि. १६-२-१९६८ को केन्द्रीय विद्युत एवं ऊर्जा मंत्री श्री पी. पर नियंत्रण और मन पर नियंत्रण आवश्यक है। रामचन्द्रन गुरुदेव श्री के दर्शनार्थ तथा विचार-चर्चा हेतु के. जी. इस प्रकार गुरुदेव श्री ने ध्यान के सम्बन्ध में गहराई से चर्चा एफ. जैन स्थानक में उपस्थित हुए। वार्तालाप के प्रसंग में आपश्री की। विशेष विगत हेतु पाठकगण देखें-"श्रुत व संयम के संगम, | ने धर्म तथा सम्प्रदाय का विश्लेषण करते हुए कहा-धर्म जीवन का प्रज्ञा-प्रदीप पुष्कर मुनि।" (लेखक : देवेन्द्र मुनि शास्त्री) संगीत है। आध्यात्मिक उन्नति का मूलमन्त्र है। धर्म है-अहिंसा, सी. एन. पाटिल सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और अनासक्ति। ये सद्गुण प्रत्येक दि. ७-१०-१९७६ को रायचूर में कर्नाटक के श्रममंत्री सी. मानव के जीवन को विकसित करते हैं। किन्तु जहाँ धर्म को एन. पाटिल उपस्थित हुए। औपचारिक वार्तालाप के मध्य गुरुदेवश्री सम्प्रदाय के सीमित दायरे में बाँध दिया जाता है वहाँ संघर्ष, कलह ने कहा-"कर्नाटक अतीत काल से ही जैन संस्कृति का केन्द्र रहा आदि उत्पन्न होते हैं। सम्प्रदाय जन्म लेता है, समाप्त होता है। किन्तु है। इतिहास की दृष्टि से द्वितीय भद्रबाहु स्वामी उत्तर भारत से धर्म सदा अखण्ड रहता है। सम्प्रदाय पाल के समान है और धर्म इधर आए थे। ऐसा माना जाता है। जैन श्रमण भाषा की दृष्टि से पानी के समान। सरोवर की पाल हो, किन्तु पानी न हो तो पाल बहुत उदार रहे हैं। उन्होंने जिस प्रकार से अन्य भाषाओं में किस काम की? साहित्य-सृजन किया, उसी प्रकार कन्नड़ भाषा में भी। यदि हमारे संविधान में भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य कहा गया है। कन्नड़-साहित्य में से जैन साहित्य को निकाल दिया जाय तो प्राचीन | मेरी दृष्टि में यह ठीक नहीं है। इसके बदले सम्प्रदाय निरपेक्ष राज्य कन्नड़-साहित्य प्राणरहित हो जायगा। नृपतुंग, आदि पंप, पोन्न, रन्न, कहा जाना अधिक उचित होता। G ००० -99900000000000000००० 900300000000000 9.00a0606 SARAdationfoternational Ac c 000 SD For private Personal use only www.jainelibrary.org.
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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