SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ULLU DUSD50DATA Sead 00000 Pata कि २३२ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।। “आज मेरे सौभाग्य! गुरुदेवों के दर्शन हुए। मेरी माता जयपुर बल्कि ऐसा भी होता है कि आलोचना से व्यक्तित्व में अधिक के जौहरियों के यहाँ रहती थी और मैं भी वहीं बड़ी हुई हूँ। यहाँ । निखार ही आता है, यदि हमारी मान्यता में बल है तो। हमारी खेती है। जंगल में पड़ी हूँ। वर्षों से मनोकामना थी कि प्रायः लोग अनुकूल परिस्थितियों में तो आनन्द से मुस्कराते हैं, सद्गुरुओं के दर्शन हों, वह कामना आज पूर्ण हुई। आज मेरा और किन्तु प्रतिकूल परिस्थिति में भी वही आनन्द भाव बनाए रख सकें बच्चों का एकासन व्रत है। गुरुदेव! आहार-पानी तैयार है। ग्रहण ऐसे महापुरुष आपश्री के समान बहुत थोड़े ही होते हैं। गुरुदेवश्री करें। मैं आज धन्य हो गई।" अपनी निन्दा और स्तुति दोनों में समान भाव बनाए रखकर बड़े प्रेम से उसने भिक्षा प्रदान की। कभी-कभी अपनी मस्ती में झूमकर उर्दू का यह शेर गुनगुनाया आपश्री ने गुरुदेव से कहा-"आज का दिन भी अपूर्व आनन्द करते थेका रहा। प्रातःकाल तर्जना और सांयकाल अर्चना। तर्जना और मंज़िलें हस्ती में दुश्मन को भी अपना दोस्त कर। अर्चना में समभाव में रहना ही श्रमण-जीवन का सही आनन्द है।" । रात हो जाए तो दिखलाए तुझे दुश्मन चिराग॥ ऐसे परीक्षा लेने वाले प्रसंगों का कोई अन्त ही नहीं है। आप कितना सुन्दर, मधुर और सन्तुलित है आपका विचार! पढ़ते जाइये। हम लिखते जायें। किन्तु कहीं न कहीं विराम तो लाना एक ही प्रसंग आपकी इस विषय की महत्ता को प्रगट करने के ही पड़ेगा। अनेक विहारों में, अनेक स्थानों पर, अनेक प्रकार की अनेक विहारी में, अनेक स्थाना पर, अनक प्रकार का लिए पर्याप्त होना चाहिएसमस्याएँ आती रहीं और समाधान निकलते रहे-अंतिम समाधान के रूप में सन्तोष, शान्ति तथा सहिष्णुता तो है ही। . सन् १९६७ का वर्षावास बालकेश्वर (बम्बई) में था। उस समय बालकेश्वर संघ की संस्थापना को लेकर कांदावाड़ी-बम्बई कहीं मकान नहीं। कहीं आहार नहीं। संघ के अधिकारियों के मन में यह विचार चल रहा था कि इस कहीं तर्जना और कहीं भय के कारण दुत्कार। संघ की स्थापना हो जाने से कांदावाड़ी संघ को सार्वजनिक कार्यों के लिए जो लाखों रुपयों की सहायता प्रतिवर्ष मिलती है, वह बन्द किन्तु किसी भी स्थान पर किसी भी प्रसंग में आपश्री को हो जायेगी। वे विरोध करने की स्थिति में तो नहीं थे, किन्तु विरोध तनिक भी, किंचित् मात्र भी विचलित होते हुए अथवा असहिष्णु करना था। अतः उन्होंने बालदीक्षा को लेकर ही विरोध किया। होते हुए नहीं देखा गया। विरोध अवैधानिक था, क्योंकि जो बाल-दीक्षा दी गई थी, वह वे सदैव यही विचार करते थे-अनार्य देशों में भगवान् बम्बई से साठ मील दूर दी गई थी। बम्बई महासंघ के कार्यक्षेत्र से महावीर को कितने कष्ट दिए गए, तथापि भगवान् उन कष्टों का । बाहर। जिसमें बाल-दीक्षा का निषेध नहीं हो। मुस्कुराते हुए ही स्वागत करते रहे। उसी पथ पर हमें भी आगे श्रमण-संघ बनने के पश्चात् अनेकों बालदीक्षाएँ हो चुकी थीं। बढ़ना है। आचार्य एवं प्रधानमंत्री मुनिवर भी बाल-दीक्षा दे चुके थे। निंदक नियरे राखिए फिर भी, विरोध की आँधी इतनी तीव्र आई, कि यदि उस आपश्री के चरित्र का एक और विशिष्ट गुण, आपश्री के समय आपश्री के अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति होता तो वह अपने आभ्यंतर व्यक्तित्व का एक और उज्ज्वल पहलू यह था कि आप न । स्थान पर टिक नहीं सकता था। किसी की स्तुति से विशेष प्रसन्न होते थे और न किसी के द्वारा की किन्तु हिमालय को भी कभी चलित होते किसी ने सुना है? जा रही निन्दा अथवा आलोचना से रुष्ट। आपश्री विचलित नहीं हुए। समाचार-पत्रों के पृष्ठ रंगे आते रुष्ट होना तो दूर, अपने आलोचक से वे प्रेमपूर्वक यही कहते रहे। विरोधी व्यक्ति उत्तेजनापूर्ण बातें लिखते रहे। किन्तु हिमालय थे-आपने मुझे शायद ठीक से समझा नहीं। आपका विरोध मेरे । की हिमशिलाओं पर अग्नि के अंगारे क्या प्रभाव डाल सकते हैं? लिए तो विनोद ही है। आपश्री जानते थे कि आँधी की आयु लम्बी नहीं होती। संसार में जिन व्यक्तियों के विमल विचारों में गहनता व मौलिकता होती है, उनकी आलोचना भी सहज रूप से होती है। वर्षा आती है। किन्तु आपश्री जैसे महान् व्यक्ति उन आलोचनाओं से अपने मन । आकाश निर्मल हो जाता है। एवं विचारों को अछूता ही बनाए रखकर अपने लक्ष्य की ओर वही स्थिति अन्त में आई। विरोधियों के मन में पश्चात्ताप आगे ही बढ़ते चले जाते हैं। उत्पन्न हुआ अपने अकृत्य के लिए। वे आपश्री के चरणों में झुक निन्दा और स्तुति-दोनों समान। गए। PosRPDPOROP 60000000 B0000000लान्त रकाशा Sairteducatorinternationage24 O PS 33 F orprivate spersonal use dnyapee 30DDOOCHDAE www.jainelibrary.org PROG R 100. 00
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy