SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Siges Fig माता-पिता का तो कहना ही क्या, जो भी पुण्यवान व्यक्ति उस असाधारण बालक को देखता कुछ विस्मय-विमुग्ध-सा ही हो जाता। अपने मन में आनन्द का भी अनुभव करता और परमात्मा से भी करता- अरे इस अजातशत्रु बालक को कहीं हमारी नजर न लग जाय । उस बालक के गर्भ में आने के समय उसकी भाग्यवान माता ने आम्रवृक्ष के दर्शन किए थे, अतः उसका नाम अम्बालाल रखा गया। दिवस ऐसे व्यतीत होने लगे, मानों सोने के हों। रात्रियों ऐसे बीततीं, मानो चाँदी की हों भारतवर्ष के अधिकांश अंचलों में उस समय बहुविवाह प्रथा प्रचलित थी। श्री सूरजमल जी एक जागीरदार थे। उनकी भी दो पलियाँ थीं। वालीबाई बड़ी थीं। लघुपत्नी ने जब देखा कि वालीबाई ने ऐसे असाधारण, सुन्दर, होनहार और अजातशत्रु बालक को जन्म दिया है तो वह स्त्री-सुलभ भावना से मन ही मन खिन्न एवं उदास रहने लगी। उसे चिन्ता सताने लगी कि पतिदेव के मन में मेरे प्रति अनुराग एवं आकर्षण अब कम हो जायेगा। उसके मन की इस चिन्तायुक्त भावना को वालीबाई ने अपनी सहज बुद्धि से शीघ्र ही जान लिया। जानकर उन्हें खेद हुआ विचार करने लगी थे कि इस अप्रिय स्थिति से कैसे बचा जाय? इसका क्या निवारण संभव है? उन्हें एक ही मार्ग उपयुक्त प्रतीत हुआ। अपने प्रिय पुत्र को लेकर वे अपने पिता कानाजी और मातेश्वरी मगदूबाई के घर नान्देशमा चली आई। इसके पश्चात् हमारे चरितनायक का लालन-पालन नान्देशमा में ही होने के कारण उनकी जन्मभूमि नान्देशमा ही विख्यात हुई। सूरजमल जी की दूसरी पत्नी ने भी बाद में एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म दिया और वह अपने घर-संसार में शान्तिपूर्वक व्यस्त रहने लगी। इधर नान्देशमा में बालक अम्बालाल धीरे-धीरे बड़ा होता हुआ किसी फुल्ल- प्रफुल्ल आम्रवृक्ष की भाँति ही अपनी शोभा और सौरभ से ग्रामवासियों के हृदयों को आनन्दित करने लगा। उसकी बुद्धि विलक्षण प्रतीत होती थी। उसका विनयपूर्ण व्यवहार लोगों को चमत्कृत कर देता था। उसकी गौरवर्ण, निर्मल देह नेत्रों को आनन्द से भर देती थी। सभी लोग यह सोचकर बड़े आश्चर्य में डूबे रहते थे कि एक छोटे-से बालक में एक साथ इतने सद्गुणों का समावेश आखिर कैसे हो गया? लगता है कि यह कोई चमत्कारी महापुरुष बनकर इस धराधाम को धन्य करेगा। लोगों का ऐसा विचार करना गलत नहीं था, यह बात आज तो सिद्ध हो चुकी है। 200 Jain Education International २०३ २१७ किन्तु उस समय तो विस्मय ही विस्मय था । और भूमिका बन रही थी । नान्देशमा ग्राम में जैन जनता की आबादी विशेष थी। मेधावी बालक अम्बालाल जैन बालकों के साथ ही खेलता-कूदता था। जन्म से ब्राह्मण होने के कारण अम्बालाल जन्मजात प्रतिभा और सहज तेजस्विता का धनी तो था ही, अब जैन संस्कारों का अमृत-वर्षण उसके व्यक्तित्व को एक अद्भुत निखार एक उच्च आयाम भी प्रदान करने लगा। उस जैनबहुल बस्ती में जैन श्रमण श्रमणियों का आवागमन चलता ही रहता था। माता वालीबाई जैन श्रमण श्रमणियों के तप, त्याग और जगत के प्राणिमात्र के प्रति प्रेम एवं करुणा का भाव रखने वाले जीवन से बहुत प्रभावित थीं जब-जब भी ग्राम में कोई जैन सन्त अथवा सतियाँ पधारते, तब-तब वालीबाई अपने पुत्र के साथ उनका सान्निध्य अवश्य किया करती थीं। वालीबाई का हृदय निर्मल था। निर्मल जल में छवियाँ सुस्पष्ट दिखाई देती हैं। दूसरे रूप में यह कहा जा सकता है कि निर्मल जल सुन्दर छवियों को सरलता और पूर्णता से ग्रहण करता है। वालीबाई के साथ भी ऐसी ही बात थी। उनके निर्मल हृदय में जैन धर्म के श्रेष्ठ संस्कार सहज रूप से प्रतिबिम्बित, प्रकाशित और स्थापित होते चले गए। मातृभक्त, मेधावी बालक अम्बालाल भी इन सुसंस्कारों से अछूता कैसे रह सकता था ? उसका जन्म ही महान् था । जीवन महानतम होने के लिए ही निर्माण हुआ था । ब्राह्मण-बालक अम्बालाल के सुसंस्कार, विनय, विवेक, व्यवहार कुशलता इत्यादि गुणों को देख-देखकर ग्रामवासी 'धन्यधन्य' कहते अघाते नहीं थे। स्नेह तो उसे मिलता ही था। आदर भी उसका सर्वत्र किया जाता था। और अब जब उसमें जैनधर्म के उत्तम सिद्धान्तों के प्रति बढ़ता हुआ अनुराग एवं आकर्षण देखा गया तब तो ग्रामवासियों के आनन्द का कोई पार ही नहीं रहा । उन्हें निश्चय हो गया कि उनके छोटे-से ग्राम में पलने वाला यह अद्भुत, विलक्षण, अजातशत्रु बालक एक दिन इतना महान् बनेगा कि विश्व विस्मित होकर उसे नमन् करेगा ! और वह नमन् विश्व-मानव की जीवन-धन्यता का प्रतीक होगा। किन्तु समय का पंछी विचित्र-विचित्र उड़ानें भरा करता है। Fer Private & Personal Use Only 103 3494 www.jainelibrary.org need
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy