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________________ 100 0:00 30% PROSC006. २१४ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ किन्तु सिंह योग को क्या जाने? ऐसा महामानव भी इस पृथ्वी पर किसी दिन सचमुच, साक्षात् साधुता से उसका क्या परिचय? चलता-फिरता था-किन्तु हम तो जानते हैं। हमारे तो सामने की ही बात है। अभी कल की ही तो । वह तो शरीर मात्र को जानता था। शारीरिक बल का ही मूर्तरूप था। आत्मबल से सर्वथा अनजान था, वह पशु-जंगल का उपरोक्त पूरे प्रसंग का वर्णन हम इस जीवनी में यथास्थान राजा! उसे केवल अपना शिकार ही दिखाई दिया, और वह अपनी । विस्तारपूर्वक करेंगे। अभी तो इतना ही जान लीजिए कि सम्पूर्ण जलती हुई, क्रूर, दहकते अंगारों जैसी आँखें एकटक उस योगी पर सृष्टि के ध्रुव सत्य, शिव और सुन्दर को अखण्ड मंगलम् के रूप में जमाए अपनी उस घातक उछाल के लिए तैयार हुआ जिस उछाल सदेह रूपायित कर स्थित हो जाने वाले उस देवात्मा को हमने जाना के बाद सामने वाला प्राणी जीवित बचता ही नहीं। था-साधना के शिखर पुरुष, साधुता के शलाका-सन्त, श्रुत व संयम के संगम, महाजपयोगी, प्रज्ञा-प्रदीप, राजस्थान-केसरी, किन्तु उसी समय योगी ने अपने नेत्र खोले और अपनी सन्त-शिरोमणि पूज्य उपाध्याय श्री पुष्करमुनि के नाम से ! .. अमृतोपम तेजोदीप्त दृष्टि मरणान्तक आक्रमण करने के लिए प्रस्तुत उस सिंह पर डाली। अक्षयवट का प्रस्फुरण उस योगी की उस दृष्टि का वर्णन क्या संभव है ? नहीं। महर्षि दधीचि अस्थियों का ढाँचा मात्र थे, जहाँ तक शारीरिक स्थिति का प्रश्न था, किन्तु उनकी अस्थियों से वज्र बना था, जो केवल इतना कहा जा सकता है कि उस अमृतमय दृष्टि में । समस्त सृष्टि की आसुरी प्रवृत्तियों के लिए काल-सदृश था। सात साल की आयी नियों के लिए काल-मटा अपार करुणा और असीम मैत्रीभाव था, जो आत्मा के परम पुरुषार्थ से प्रदीप्त भी था। महात्मा गाँधी डेढ़ पसली के आदमी थे, किन्तु इस पृथ्वी के एक छोर से दूसरे छोर तक, सूर्योदय से सूर्यास्त के स्थल तक जिस उस अभय दृष्टि के समक्ष वह क्रूर, विकराल, भूखा सिंह समर्थ ब्रिटिश साम्राज्य का अन्त नहीं था-वस्ततः जिसके साम्राज्य स्तम्भित-सा घड़ी भर देखता ही रह गया। ऐसी अमृतमय, में सूर्यास्त होता ही नहीं था-उस विशाल साम्राज्य को गाँधी के आलोकवान, अभय दृष्टि उस मूक पशु-उस वन के राजा ने कभी । आत्मबल ने ध्वस्त कर दिया था। देखी नहीं थी। जब ऐसा है, तब यदि किसी महापुरुष की देह भी भव्य हो, चकित और फिर नमित वह सिंह धीरे-धीरे आगे बढ़ा। योगी कि जिसके दर्शन मात्र से मानव का शीश श्रद्धा से नमित हो जाय के चरणों तक आकर वह अपना सिर झुकाकर कुछ क्षण खड़ा रहा तथा उस महापुरुष का जीवन भी भव्यतम हो, कि जिसके प्रभाव से और फिर अपनी राह चला गया। अन्धकार में भटकती हुई आत्माएँ प्रकाश का पथ पकड़ लें तो वह सिंह एक पशु था। विचार नहीं कर सकता था। किन्तु यदि फिर कहना ही क्या? वह विचार कर सकता होता तो निश्चय ही वह यही सोचता कि विशाल, कद्दावर, ऊँची, सशक्त, मनोरम, गौरवर्ण देह। उन्नत, पुरातन काल के लिए तो सुना जाता है कि तीर्थंकरों, मुनियों, प्रदीप्त भाल, किसी ज्योतिर्चक्र की भाँति केशरहित कपाल, निर्मल ऋषि-महर्षियों के समीप, उनकी असीम प्रेम एवं करुणा की छाया । अमृतवर्षी नेत्र, आजानु मांसल भुजाएँ, विस्तीर्ण वक्षस्थल, सुपुष्ट में घोर हिंसक प्राणी भी अपने समस्त जन्म-जात वैर-भाव को । स्कन्ध, अंगद के से पाँव, सिंह का सा पराक्रम और गजराज भुलाकर, अपनी हिंसक वृत्ति को त्याग कर, हिलमिल कर साथ बैठे । ऐरावत की सी अलमस्त चाल | रहते थे, किन्तु इस कलियुग में भी क्या कोई ऐसा महापुरुष हो मानो श्वेत-कंचनवर्णी सुचिक्कण संगमर्मर से किसी कुशल सकता है जिसके एक अमृतोपम दृष्टिपात मात्र ने मेरी वृत्ति को । मूर्तिकार द्वारा गढ़ी गई कोई ग्रीक देव-प्रतिमा ! परिवर्तित कर डाला? मानो अजन्ता-एलोरा से उड़कर कोई सुगठित, सौंदर्यवान, काश! वह वनराज विचार कर सकता होता। पवित्र शिल्पकृति साक्षात् चैतन्य बनकर भूमि पर विचरण करने कर से क्रूर, हिंसक से हिंसक उस वनराज के समक्ष स्वयं लगी हो। अभय रहकर उस पशु को भी अभय का पाठ पढ़ा देने वाला वह कुछ ऐसा ही था उपाध्याय श्री का भव्य, बाह्य व्यक्तित्व। योगी कौन था? आभ्यंतर के दिग्दर्शन हेतु तो यह चरित्र लिखा ही जा रहा है। आइये, अब अन्धकार से प्रकाश की ओर चलें। अपने-अपने किन्तु अभी तो होनहार बिरवान के चिकने पात हरिया रहे थे। पात्र में जितना-जितना समाए उतना-उतना आलोक उस सूर्य से सघन हो रहे थे प्रस्फुटन तथा परिवर्धन का क्रम आरम्भ हुआ था प्राप्त कर लें, जो किसी दिन हमारी इसी पृथ्वी पर अवतरित हुआ वातावरण में एक अवर्णनीय, अज्ञात, मधुरिम सौंदर्य एवं था। आने वाली पीढ़ियों को विश्वास हो कि न हो कि क्या कोई । सौरभ के प्रक्षेपण और दिशा-दिशा में विकिरण का काल था वह। 2050D तत्ताप्तता 00900DODODIDOD.0080% afinitrary.org PSOREDicarcantgguanento299D 000000000000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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