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________________ श्रद्धा का लहराता समन्दर १७९ उपाध्याय पुष्कर मुनि प्यारे श्रमणसंघ के उपाध्याय, श्री पुष्कर गुरुवर आप थे। नवकार के सच्चे समर्थक, मार्ग दृष्टा आप थे॥५॥ -राज. सिंहनी महासतीश्री प्रेमवती जी म. आत्मस्वरूप की शोध में रहती थी, आपकी साधना। आत्म प्रतीति को जगाकर, की अविलम्ब आराधना ॥६॥ (तर्ज : मोहरम (मारीया)) रोम-रोम में रमती थी, वीर वचन की वाचना। उपाध्याय पुष्कर मुनि प्यारे, ऐसे संयम यात्री दात्री, गुरु पुष्कर को वंदना ॥७॥ कैसे छोड़ के स्वर्ग सिधारे।।टेर॥ ध्यानयोगी अध्यात्मयोगी, योगियों में सरताज थे। ज्ञानियों में श्रेष्ठ ज्ञानी, गुरु पुष्कर राज थे॥८॥ उन्नीसो अड़सठ में जन्म जो लिना, ब्राह्मण कुल को उज्ज्वल किना गंगा यमुना सरस्वती सम, व्यक्तित्व आपका निर्मल था। हिमालय गिरी से भी उन्नत, जीवन आपका विमल था।॥९॥ शुभ बेला, घड़ी पलवारे ॥१॥ कैसे गुरुवर का मांगलिक सुनकर, भूत-प्रेत भग जाते। सूरजमल जी तात कहाये, समदृष्टि सुर सेवा करते, हाथ जोड़ हाजिर रहते॥१०॥ मता वाली बाई जाये, अनाथों के नाथ गुरुवर, अनाथ बनाके छोड़ चले। बचपन में संयम धारे ॥२॥ कैसे....... क्या सुनाये दासता, आप स्वर्ग सोपान चढ़े ॥११॥ गुरु ताराचंद्र जी सोहे, भूधरा पर हुए अवतरित, आश्विन ओली निराली थी। चार तीर्थ का मन मोहे, भू पर से प्रयाण किया, चैत्र मास की ओली थी॥१२॥ उनके शिष्य हो आप सितारे ॥३॥ कैसे'' श्रद्धाञ्जलि अर्पित करती कौशल्या, तव स्मरणों में। ज्ञान ध्यान में चित्त रमाया, स्वीकारो त्रिकाल नमन, वन्दन तव श्री चरणों में ॥१३॥ गुरु सेवा कर हर्षाया, शासन दिपाया गुरु के सहारे ॥४॥ कैसे शत-शत वन्दन आचार्य देवेन्द्र प्यारा, ओ शिष्य हो खास तुम्हारा, -महासती श्री सिद्धकुंवर जी म. 00 उनको बिलखत छोड़ सिधारे ॥५॥ कैसे (तर्ज : बार बार तोहे........) उदयपुर में संथारा किना उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि की बोलो जय-जयकार चैत्र सुदी ग्यारस भिना, पर उपकारी गुरु को वन्दन बारम्बार टेर प्रेमवती श्रद्धांजलि प्यारे ॥६॥ कैसे आश्विन शुक्ला चवदस को गुरु जन्म लिया मात-पिता और ब्राह्मण कुल को धन्य किया गोगुन्दा की धरती हो गई वन्दनीय हर बार श्रद्धा-सुमन का लघुवय में संस्कार उभर कर आये थे -जैनार्या कौशल्याकुमारी तारा गुरु का सान्निध्य पा हरसाये थे ज्येष्ठ शुक्ला दशमी को आई थी नई बहार" गुरु भक्ति का तीर्थ महा, त्रिवेणी का तीर। संस्कृत प्राकृत गुजराती राजस्थानी गोता एक लगाय जो, मीटे आपदा पीर ॥१॥ अनुपम वक्ता काव्यकार थे महाज्ञानी अद्भुत वाणी प्रवचन शैली की थी अजब बहार" गुरु शक्ति ही विश्व में, सर्व सुखों की खाण। निश्चय भव जल उतरिये, पाइये पदनिर्वाण॥२॥ शीतलता निर्मलता जिनके कण-कण में शान्ति सरलता सहज थी जिनके तन मन में सच्चिदानन्द घन सद्गुरु, सद्गुण का आराम। जैन कथा साहित्य जगत में चमकेगा हर बार श्री गुरुचरण सरोज में शत-शत कोटी प्रणाम ॥३॥ आगमज्ञानी राष्ट्र सन्त संघ के मोति जाके सिर पर सदा रहा गुरु कृपा का हाथ। आचार्यप्रवर देवेन्द्र सी दी अनुपम ज्योति दोनों लोक में जानिये वही बना सनाथ ॥४॥ 'सिद्ध' चरण में वन्दन शत शत कर लेना स्वीकार'.' मान्तकातळवण्तन्तत One-homemationaPROG02069-000-00-00Horsprivatbiabersonalaise-a0000RROcdsc0000000000000 50029
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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