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________________ 2000 श्रद्धा का लहराता समन्दर सीखने के लिए गुरुदेवश्री ने मुझे प्रेरणा दी। गुरुदेवश्री स्वयं मुझे पढ़ाते रहे गुरुदेव के चरणों में रहकर कर्नाटक की लम्बी यात्रा मैंने तय की और बैंगलोर वर्षावास में गुरुदेव के चरणों में रहा और कुछ समय मद्रास वर्षावास में भी गुरुदेव के चरणों में रहने का अवसर मिला और वहाँ से सिकन्दराबाद तक विहार यात्रा में रहा। पारिवारिक समस्या होने के कारण मैं सिकन्दराबाद से दिल्ली पहुँच गया और जब गुरुदेवश्री सिकन्दराबाद का यशस्वी वर्षावास संपन्न कर उदयपुर पधारे तो मैं पुनः उदयपुर दर्शनों के लिए पहुँचा और उस वर्षावास में भी गुरु चरणों में रहकर अध्ययन करने का अवसर मिला। राखी वर्षावास के पश्चात् पूज्य गुरुदेवश्री ने और मेरी बहिन म. दर्शन प्रभा जी और चारित्र प्रभा जी ने मुझे प्रबल प्रेरणा दी कि वैराग्य अवस्था में बहुत लम्बे समय तक रह चुके हो। अब आईती दीक्षा ग्रहण कर लो और सन् १९८२ में गढ़सिवाना में मेरी दीक्षा संपन्न हुई। गुरुदेवश्री की असीम कृपा मेरे पर रही है। गुरुदेवश्री की कृपा के फलस्वरूप ही मैं धर्म और दर्शन का अध्ययन कर सका हूँ। पूज्य गुरुदेवश्री में हजारों विशेषताएँ थीं। उन हजारों विशेषताओं को किन शब्दों में लिखा जाए यह समझ में नहीं आता, उनका सम्पूर्ण जीवन सरलता और सहजता से भरा हुआ था, आगम साहित्य के प्रति उनकी अपार निष्ठा थी और जब भी उन्हें समय मिलता हमें प्रेरणा देते, आओ मेरे पास और आगम साहित्य को पढ़ो। गुरू का अनन्त उपकार कभी भुलाया नहीं जा सकता। उनकी असीम कृपा सदा ही मेरे पर रही है। आज वे हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु हमारे हृदय पर उनकी छवि अंकित है। और सदा अंकित रहेगी यही है उस महागुरु के चरणों में | भावभीनी श्रद्धार्चना | PR प्रतिपल जागरूक जीवन FP -महासती डॉ. धर्मशीला जी म. परम श्रद्धेय महामहिम उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनका व्यक्तित्व अत्यधिक आकर्षक, प्रभावक और बहुत ही लोकप्रिय था। उनका स्वभाव मधु से भी अधिक मधुर और शान्त व मिलनसार था। वे सदा जागरूक रहते थे उनकी साधुचर्या इस बात की द्योतक थी अपने जीवन में कहीं दोष न लगे इसके लिए वे प्रतिपल प्रतिक्षण जागरूक रहते थे तथा न दूसरों की निन्दा सुनते थे और न किसी की आलोचना ही यदि कोई व्यक्ति उनके सामने दूसरों की आलोचना करता तो उनके मुखारविन्द से एक ही शब्द निकलता तुम यहाँ पर धर्म करने के लिए आए हो, पाप करने के लिए नहीं, दूसरों की निन्दा और १६०B आलोचना करना पाप है। न मैं किसी की निन्दा सुनना पसन्द करता हूँ और न निंदा ही करता हूँ। यदि तुम्हें करना ही है तो तत्वचर्चा करो, आगम संबंधी, जैन दर्शन संबंधी प्रश्न करो। संत सदा ही तन से निरपेक्ष रहते हैं। तन के ऊपर उनका विशेष लक्ष्य नहीं होता। वे तो सदा ही आत्मभाव में रमण करते हैं। और उन्हें आत्मभाव में रमण करने में ही अपूर्व आनन्द की अनुभूति होती है। उपाध्यायश्री के जीवन में जहाँ पर प्रज्ञा का दिव्य प्रकाश जममगा रहा था वहाँ पर उनमें आचार के प्रति बहुत ही गहरी निष्ठा थी, आचार और विचार का, ज्ञान और क्रिया का उनके जीवन में समन्वय था। उनका जीवन यज्ञ की अग्नि की तरह प्रज्वलित था, ज्योतिर्मय था। वे निर्भीक और फक्कड़ संत थे। गरीब से गरीब व्यक्ति से प्यार करते थे। उनके सामने गरीब और अमीर का भेद नहीं था। उनका संकल्प सुदृढ़ था। जो भी उन्होंने संकल्प किया उसमें वे सदा सफल रहे। उपाध्यायश्री के जीवन में तप भी था, त्याग भी था और वैराग्य भी था। हमने बहुत ही निकटता से उनके दर्शन किये, उनसे विचार चर्चाएँ कीं, हमारे परम आराध्य गुरुदेव आत्मार्थी श्री मोहन ऋषि जी म. और मंत्री श्री विनय ऋषि जी म. और मेरी सद्गुरुणी जैन जगत् की उज्ज्वल तारिका श्री उज्ज्वल कुंवर जी म. भी उनके विमल विचारों से प्रभावित थीं। हमें परम आह्लाद तो इस बात का है कि उन्होंने श्रमण संघ को एक ऐसा दिव्य- रत्न दिया है जो श्रमण संघ का भाग्य विधाता है। ऐसे शिष्य-रत्न के वे सद्गुरुदेव रहे हैं और हमारे सभी के वे सच्चे पथ-प्रदर्शक रहे हैं। उपाध्याय ज्ञान के अधिष्ठाता होते हैं, आगम के गुरू गंभीर रहस्यों के ज्ञाता होते हैं। उनका असीम उपकार हमारे पर है। जब मैंने नवतत्व पर शोध प्रबन्ध लिखा उस समय उपाध्यायश्री का मार्गदर्शन और आचार्यश्री देवेन्द्र मुनि जी म. का पथ-प्रदर्शन मेरे शोध प्रबन्ध के लिये वरदान रूप रहा। उनके चरणों में बैठकर हमने बुहत कुछ पाया है। अन्त में मेरी यही कामना है। शायर के शब्दों में कहूँ "हर रोशनी हो यहाँ जहाँ तुम भी रहो परमानन्द हो वहाँ जहाँ तुम भी रहो। अद्भुत थी प्रवचन कला -महासती श्री प्रमोद सुधा जी म. सा. सन् १९६७ की बात है हम कांदावाड़ी (बम्बई) स्थानक में ठहरी हुई थीं। एक दीक्षा का पावन प्रसंग था। उस प्रसंग पर ADDSDC
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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