SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रद्धा का लहराता समन्दर भी स्वीकार की। ऐसे परम श्रद्धेय गुरुदेव के चरणों में अपनी । हूँ। ऐसे परम दयालु गुरुदेवश्री के चरणों में भावभीनी श्रद्धांजलि अनंत आस्थाएँ समर्पित करते हुए अपने आपको गौरवान्वित समर्पित करते हुए मेरा हृदय भावना से विभोर हो रहा है। अनुभव कर रहा हूँ। दया के देवता : गुरुदेवश्री जगमगाते सूर्य : गुरुदेवश्री ) -रणजीतमल महेन्द्रकुमार लोढ़ा (अजमेर) -दर्शनकुमार जैन (दिल्ली) संत दया का देवता है, दया धर्म की महागंगा जब प्रवाहित प्रभात के पुण्य पलों में प्राची दिशा से सूर्य का उदय होता है। होती है तभी सद्गुणों के सुमन फलते हैं, फूलते हैं। जहाँ दया की चारों ओर गहन अंधकार एक क्षण में मिट जाता है। चारों ओर स्रोतस्विनी सूख जाती है, वहाँ पर धर्म के सुन्दर पुष्प मुझ जाते सूर्य की किरणें फैल जाती हैं। यही स्थिति महापुरुषों की है, उनके हैं। संत के अन्तर् हृदय में दया की भव्य भावना प्रवाहित होती है, जीवन के आलोक को पाकर अज्ञानियों के अंधकार नष्ट होते रहे जिससे वह स्व और पर के भेदभाव को छोड़कर सबको एक ही हैं और उन साधकों का जीवन ज्ञान से प्रभा स्वर बनता रहा है। भाव से निहारता है और दया का, करुणा का अमृत वितरण परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. ऐसे ही जगमगाते सूर्य करता है। संतों का हृदय नवनीत से भी अधिक विलक्षण है, थे, जिनके संपर्क में आकर लाखों व्यक्तियों ने अपने जीवन को नई नवनीत स्वताप से द्रवित होता है, जबकि संत परताप से द्रवित दिशा एवं नया दर्शन दिया, नया मोड़ दिया। होते हैं। स्वताप से वे कभी विचलित नहीं होते। उपाध्यायश्री सिद्ध जपयोगी थे। जप के प्रति उनकी अपार परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. श्रमण निष्ठा थी। नियमित समय पर वे स्वयं जप करते थे और उनके संघ के एक महासंत थे, वे उपाध्याय के पद से समलंकृत थे। संपर्क में जो भी व्यक्ति आता चाहे युवक हो, चाहे युवतियाँ हों वे भारत के राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह जी ने उन्हें “विश्व संत" की 36 उन्हें जप की प्रेरणा देते, जप करने के लिए उत्प्रेरित करते। उपाधि प्रदान की थी तथा अन्य अनेक स्थानों से विभिन्न संस्थाओं उपाध्यायश्री जी की प्रेरणा से हजारों युवकों ने जप साधना प्रारम्भ की और उन्हें जप साधना का चमत्कार भी प्राप्त होता। वे आधि, के द्वारा उन्हें विविध उपाधियाँ प्रदान की गईं तथापि उनके अन्तर् छन् मानस में अहंकार नहीं था, अहंकार और ममकार से वे ऊपर उठे व्याधि और उपाधि से मुक्त होकर जप साधना में आनन्द की अनुभूति करते, जब जप साधना में एक बार आनन्द की अनुभूति हुए थे, जो विश्व के हित में अपने आपको समर्पित कर देता है, हो जाती है, तब वह जप छूटता नहीं। ऊपर से थोपा हुआ नियम वही तो विश्व संत की उपाधि से समलंकृत होता है। चिरकाल तक स्थाई नहीं होता। श्रद्धेय सद्गुरुवर्य के दर्शनों का सौभाग्य अनेकों बार हुआ त उपाध्यायश्री किसी पर नियम थोपने के पक्षधर नहीं थे, उनका । चाहे जैसी शारीरिक स्थिति में रहे हों, कई बार पेशाब में पस की मंतव्य था, पहले उसे समझाया जाए और समझने के बाद उसे अभिवृद्धि हो जाने से उन्हें तीव्र ताप हो जाता था, १०४°, १०५° नियम दिलाया जाए क्योंकि नियम के बिना व्यक्ति कई बार फिसल ज्वर में भी वही शान्ति, कभी उनके चेहरे पर घबराहट देखने को भी जाता है, इसलिए नियम आवश्यक है पर वह नियम समझदारी- नहीं मिली। जब भी पूछते गुरुदेव कैसे हैं ? तो एक ही शब्द उनके पूर्वक होना चाहिए। बिना समझदारीपूर्वक जो नियम ग्रहण किया मुखार-बिन्द से निकलता था आनन्द ही आनन्द है। गुरुदेव ज्वर तो जाता है, वह सच्चा नियम नहीं होता, वह सुप्रत्याख्यान नहीं होता। है? पर वे फरमाते थे ज्वर तो शरीर में है पर आत्मा तो पूज्य गुरुदेवश्री हमारे डेरावाल कोलोनी दिल्ली में पधारे। ज्वररहित है। हमारे यहाँ पर स्थानक नहीं था। गुरुदेव की असीम कृपा से हमें हमारे परिवार पर गुरुदेवश्री की असीम कृपा रही। सन् जमीन मिल गई और नव्य भव्य स्थानक भी बन गया। महापुरुषों १९८३ में गुरुदेवश्री का वर्षावास मदनगंज में हुआ। हम दोनों भाई की जब कृपा होती है तब क्या असंभव है। गुरुदेव की असीम कृपा सपरिवार दर्शनार्थ पहुँचे। प्रथम दर्शन ने ही हमारे को इतना हमारे परिवार पर रही है। अधिक प्रभावित किया कि हम सदा-सदा के लिए गुरु चरणों में उपाध्यायश्री के अनेकों बार दर्शन करने का सौभाग्य मुझे । समर्पित हो गये। पूज्य गुरुदेवश्री की असीम कृपा से उनके मिला। उनके निकट संपर्क में आकर मेरे मन में यह विचार उबुद्ध चमत्कारिक मंगलपाठ को सुनकर जो भी हमने कार्य प्रारम्भ किया हुआ कि मैं सदा-सर्वदा के लिए पानपराग, जर्दा, तम्बाकू आदि उसमें हमें सहज सफलता मिली। पूज्य गुरुदेवश्री कृपा कर हमारे व्यसनों से मुक्त बन जाऊँ और मैंने अपने हृदय की बात मकान पर भी विराजे। जिस प्रकार गुरुदेव की असीम कृपा हमारे उपाध्यायश्री के चरणों में रखी और उन्होंने प्रसन्नता से मुझे नियम । पर रही वैसी ही कृपा पूज्य गुरुदेवश्री के प्रधान शिष्य आचार्य दिलाए और वह नियम आज भी मैं दृढ़ता के साथ पालन कर रहा है सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनिजी म. की भी रही है। - - grampaignsrusa PRO TIONacawwrainelibrary.orgal |RAMERAN Educalion totelahaiand u BDOAOISDOHORSD4O5
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy