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________________ श्रद्धा का लहराता समन्दर श्री ताराचंद्र जी म. ने मेरे जन्म के पूर्व चातुर्मास किया था और वहाँ पर भूतपूर्व अमरसिंह सम्प्रदाय का क्षेत्र था। परम्परा के कारण सहज लगाव होना स्वाभाविक था और वह वर्षावास पूर्ण यशस्वी रहा, पूज्य गुरुदेवश्री के ओजस्वी, तेजस्वी प्रवचनों ने उदयपुर में एक नई हलचल पैदा की और क्रांति की स्वर लहरियाँ झनझनाने लगीं। वह प्रथम परिचय धीरे-धीरे बढ़ता ही चला गया। सन् १९६६ में गुरुदेवश्री का वर्षावास पदराड़ा हुआ, उस वर्षावास में श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय की स्थापना पदराड़ा में हुई, पर पदराड़ा में यातायात के साधनों का अभाव था अतः हमने उदयपुर में ग्रंथालय खोलने का निर्णय लिया क्योंकि उदयपुर में मकानों का अभाव होने से धर्म-ध्यान करने वाले श्रद्धालुओं के लिए भी एक समस्या थी और रुग्ण / वृद्ध साधु-साध्वियों को ठहरने में भी असुविधा थी । सम्प्रदायवाद के कारण मकान खाली पड़े रहने पर भी संत-सतियों को ठहरने के लिए दुर्लभ थे और सन् १९७३ में हमने निर्णय लिया कि हमें मकान लेना है और वह हमने खरीद लिया, इस भगीरथ कार्य में श्रीमान चुन्नीलाल जी सा धर्मावत का अपूर्व सहयोग रहा। गुरुदेवश्री अहमदाबाद चातुर्मास हेतु पधार रहे थे, उस मकान में एक दिन विराजे और श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय का प्रधान केन्द्र उदयपुर में स्थापित हो गया। उस समय ग्रंथालय के अध्यक्ष डालचंद जी सा. परमार थे। जब उसकी शारीरिक स्थिति कार्य करने में सक्षम नहीं रही तो मुझे श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय का अध्यक्ष पद दिया गया। सभी पदाधिकारियों के सहयोग से तब से अब तक मैं इस पद पर रहकर कार्य करता आ रहा हूँ। पुनः गुरुदेवश्री का सन् १९८० में उदयपुर चातुर्मास हुआ। गुरुदेवश्री सिकन्दराबाद का यशस्वी वर्षावास संपन्न कर उदयपुर पधारे। महासती श्री रत्नज्योति जी की दीक्षा संपन्न हुई और वर्षावास भी शानदार रूप से उदयपुर में हुआ। प्रस्तुत वर्षावास में गुरुदेवश्री के अनेकों प्रवचन मैंने सुने पूज्य गुरुदेवश्री की वाणी में जोश था, कुरीतियों के प्रति रोष भी था और जब उनकी गंभीर गर्जना होती तो श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे। अनेक शिक्षाविद और राजनीति के क्षेत्र में काम करने वाले विशिष्ट व्यक्ति समय-समय पर गुरुदेवश्री के प्रवचनों का पूरा लाभ लेते रहे। गुरुदेवश्री जहाँ सफल प्रवक्ता थे, वहाँ सफल लेखक भी थे। हमने ग्रंथालय की ओर से गुरुदेव श्री के कथा साहित्य को १११ भागों में प्रकाशित किया, यह कथा साहित्य बहुत ही चित्ताकर्षक रहा। बालक-बालिकाएँ, युवक और युवतियाँ और वृद्ध भी इस कथा साहित्य को बड़े चाव से पढ़ते हैं। अल्प मूल्य में जन-जन के जीवन में नैतिकता का संचार हो इसलिए इस साहित्य का प्रकाशन हुआ और मुझे लिखते हुए आनंद की अनुभूति हो रही है कि इन कथाओं के गुजराती भाषा में और अंग्रेजी भाषा में अनुवाद भी हुए और वे अनुवाद लक्ष्मी पुस्तक भण्डार, गांधी मार्ग, अहमदाबाद ने प्रकाशित किए। Jain Education International १३९ गुरुदेवश्री का प्रवचन साहित्य भी हमें प्रकाशित करने का सौभाग्य मिला, धर्म का कल्पवृक्ष जीवन के आंगन में, श्रावक धर्म दर्शन, जैन धर्म में दान एक समीक्षात्मक अध्ययन और ब्रह्मचर्य विज्ञान | यह प्रवचन साहित्य सामान्य प्रवचन साहित्य न होकर एक विशिष्ट प्रवचन साहित्य है। अपने विषय का सांगोपांग विवेचन इन ग्रन्थों में हुआ है। पूज्य गुरुदेवश्री का गंभीर पाण्डित्य इस साहित्य में निहारा जा सकता है। गुरुदेवश्री की सबसे बड़ी विशेषता थी वे सच्चे संत थे, सच्चे संत की मेरी दृष्टि से सटीक परिभाषा है, जिनमें छल, छद्म, माया और कापट्य पूर्ण जीवन का अभाव है, जिनके मन में जो बात है, वही वाणी में है और वही आचरण में है, वही तो सच्चा संत है, गुरुदेवश्री के जीवन में बालक की तरह सरलता थी, वे जो कुछ भी बात होती उसे स्पष्ट शब्दों में फरमा दिया करते। गुरुदेवश्री के दर्शन हेतु मैं प्रायः जाता ही रहा और मुझे बहुत ही निकटता से देखने का अवसर मिला और उनकी सच्ची साधुता को देखकर में सदा नत होता रहा। हमारी प्रार्थना को सम्मान देकर पूज्य गुरुदेवश्री ने और अन्य पदाधिकारी मुनिराजों ने तथा कांफ्रेंस ने आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी म. का चद्दर समारोह करने की अनुमति प्रदान की और गुरुदेव श्री इस सुनहरे अवसर पर उदयपुर पधारे और ५ मार्च को श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय में पधारे चद्दर समारोह का ऐतिहासिक कार्यक्रम सानंद संपन्न हुआ पर किसे पता था कि गुरुदेव श्री का सदा-सदा के लिए हमारे सिर के ऊपर से छत्र उठ जाएगा। गुरुदेवश्री अस्वस्थ हो गये और उन्होंने संधारा कर साधनारूपी मंदिर पर स्वर्ण शिखर चढ़ाया। आपश्री का संथारा देखकर और समभाव देखकर हम सभी विस्मित थे, गुरुदेवश्री सदा ही संस्था के प्रति निस्पृह रहे, वे निज साधना में ही तल्लीन थे पर संस्था में ही गुरुदेवश्री का स्वर्गवास हुआ एवं उनका अंतिम संस्कार भी संस्था में ही हुआ। गुरुदेवश्री की सदा छत्रछाया हमारे पर बनी रहे, यही गुरुदेवश्री के चरणों में भावभीनी वंदनांजलि। कितने महान थे गुरुदेव ! -मांगीलाल जी ओरड़िया (वास) संत संसार के उद्धार करता है क्योंकि ये समदर्शी होते हैं, वे सभी में अपनी इच्छाओं की आहुति देते हुए अपने जीवन में आत्म-साधना, ज्ञानोपदेश और जनकल्याण के लिए सर्वात्मना समर्पित कर देते हैं तथा विकार और वासनाओं को काम, क्रोध, मद, मोह आदि आन्तरिक शत्रुओं को पराजित कर देते हैं। उनका तपः पूत जीवन जन-जन के लिए प्रेरणा का पावन स्रोत होता है। संसार के प्राणी विकार वासनाओं में फँसे रहते हैं मोह, माया के गर्त में डूबे रहते हैं, उन व्यक्तियों का उद्धार संतों के पावन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org/
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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