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________________ ५६ परकल्याण में जिन्होंने सम्पूर्ण जीवन लगाया, सेवा, सरलता और साधना के मूर्त रूप थे। चेतना का और प्रगतिशीलता का लक्षण है। नहीं रहता है, तब समाज की गति अवरुद्ध हो जाती है, उसका परम तेजस्वी रूप धूमिल हो जाता है। धर्म आपके जीवन में साकार रूप लिए हुए था। आपके जीवन का प्रत्येक व्यवहार धर्म से ओतप्रोत था। आपका यह स्पष्ट मंतव्य था, दीपक में जितना तेल होगा उतना ही प्रकाश होगा। जीवन में यदि धर्म रमा हुआ है तो उसकी वाणी का भी प्रभाव पड़ेगा। यही कारण था कि आपकी • विमलवाणी से प्रभावित होकर हजारों व्यक्तियों ने धर्म के पथ को अपनाया, जपसाधना को स्वीकार किया। वस्तुतः आप त्याग, धर्म हमारी जागरूक धर्म जब प्रगतिशील गुरुदेवश्री सफल वक्ता थे, वे जिस विषय पर बोलते थे, उस विषय के तलछट तक पहुँचते थे। सरल भाषा में आत्मा, परमात्मा, धर्म, पुनर्जन्म जैसे दार्शनिक विषयों पर इस प्रकार प्रवचन करते थे वह दार्शनिक विषय सहज हृदयंगम हो जाता था। अपने प्रवचनों में इस प्रकार के रूपक कथाएँ और चुटकले प्रस्तुत करते थे कि श्रोता आनन्द से झूमने लगते थे और हँसी के फव्वारे छूट पड़ते थे। साथ ही प्रवचन में आशु कविता के द्वारा जन-जन के हृदय को आन्दोलित कर देते थे। गुरुदेवश्री के प्रवचन में जहाँ विषय की गंभीरता रहती वहाँ भाषा की सरलता और सहजता रहती। वे अपने प्रवचनों में जहाँ गंभीर तत्व की मीमांसा करते वहाँ पर समाज में फैले हुए अंधविश्वासों और कुरीतियों पर तीखे व्यंग भी कसते । निर्व्यसन जीवन जीने की प्रेरणा देते। पर मैंने अनुभव किया गुरुदेवश्री सरलमना, आत्मानुशासी और सच्चे व अच्छे संयमनिष्ठ संत थे। आप नई दृष्टि प्रदान करते थे, आपका यह मंतव्य था कि युवापीढ़ी ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में अग्रसर हो । नये चिन्तन से परिचित हो यह श्रेष्ठ बात है, भारतीय संस्कृति की जो उदात्त विचारधारा है यदि हम उस जीवन्त विचारधारा से हट गए तो मानवता के लिए वह कलंक होगा। इसलिए आपने अपने साहित्य में भी भारतीय संस्कृति के मौलिक तत्वों की स्थापना की आपने जो भी साहित्य सृजित किया, उसमें संप्रदाय नहीं, धर्म के सार्वभौमिक तथ्य उद्घाटित किए हैं। गुरुदेवश्री के जीवन की यह अपूर्व विशेषता रही कि वे जहाँ जीवन भर निर्मल साधना करते रहे वहाँ जीवन के अंतिम क्षणों में भी उन्होंने सहर्ष स्वेच्छा से संथारा ग्रहण कर यह बता दिया कि जो साधक जीवन भर सफल साधना करता है, वह अंतिम क्षणों में भी साधना के समुत्कर्ष को पा सकता है। संथारा साधना का अंतिम लक्ष्य है, उस अंतिम लक्ष्य को गुरुदेवश्री ने सफलता के साथ वरण कर एक महान् रूप प्रस्तुत किया। गुरुदेवश्री के चरणों में भाव-भीनी वंदना के साथ मैं अपनी श्रद्धा भरी श्रद्धांजलि समर्पित करता हुआ यह मंगल मनीषा करता Jam Education International उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ हूँ, आपका जीवन हमारे लिए सदा-सर्वदा प्रेरणा स्रोत रहेगा और हम आपके जीवन से प्रेरणा प्राप्त कर अपना आध्यात्मिक उत्कर्ष करते रहेंगे। ed जीवन-निर्माता सद्गुरुदेव महासती प्रियदर्शना जी (साध्वीरत्न महासती श्री पुष्पवती जी म. की सुशिष्या) भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक ऊर्जा को प्रदीप्त बनाये रखने में संत का विशेष योगदान रहा है। आज चारों ओर उपभोक्ता संस्कृति के नाम पर असंयम और विलासिता पनप रही है, ऐसी विकट बेला में उपयोग दृष्टि विकसित कर अपने जीवन को ६९ वर्ष तक निरतिचार संयम साधना के पथ पर अग्रसर करते हुए रहना अपने आप में एक अनूठी कला है, महत्वपूर्ण आदर्श है। सद्गुरुवर्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. अपने यशस्वी संयमी जीवन के दीप को प्रतिपल प्रतिक्षण जलाये रखकर न केवल स्वयं उसके मधुरिम प्रकाश से आनंदित और आलोकित होते रहे अपितु अज्ञान और अभाव में निमज्जित हजारों लाखों पथ भ्रमित व्यक्तियों को अपने निर्मल ज्ञान, दर्शन व चारित्र निष्ठ आलोक से पथ प्रदर्शन भी करते रहे। 7 shor Private & Personal Use Only. यह एक ज्वलन्त सत्य है कि श्रमण परम्परा में प्रव्रजित श्रमण जीवन सहज-सरल सुविधा का जीवन नहीं है, यह संयम यात्रा कंटकाकीर्ण पथ पर चलने के समान अत्यन्त कठिन है। इस यात्रा में स्वयं के सुख और सुविधा के लिए दूसरों को हटाना / गिराना नहीं होता और न उनके अधिकारों से उनको वचित ही किया जाता है, संयमी साधक को दूसरों से नहीं अपने आप के विकारों से लड़ना होता है। वह इस युद्ध में बाह्य अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग नहीं करता किन्तु क्षमा, सरलता, समता, अनासक्ति, धैर्य, संतोष, सहनशीलता प्रभृति शस्त्रों से दुर्गुणों को प्राप्त करता है। यह साधना के महामार्ग पर बढ़ते हुए जो उपसर्ग और परीषह की चट्टानें आती हैं, उन्हें चीरता हुआ आगे बढ़ता है और आत्म-दर्शन के आनन्द को प्राप्त करता है। श्रद्धेय सद्गुरुवर्य सदा-सर्वदा अप्रमत्त भाव से बरसाती नदी की तरह निरन्तर आगे बढ़ते रहे, उनका सम्पूर्ण जीवन विवेक और वात्सल्य का साक्षात् रूप था। १४ वर्ष की लघुवय में संसार के राग-रंग को त्याग कर निवृत्ति के पथ पर निरन्तर बढ़ते रहे। सद्गुरुवर्य महास्थविर श्री ताराचन्द्र जी म. के कुशल नेतृत्व में विमल विवेक के आलोक में एक और आप आत्म-शोधन करते रहे तो दूसरी ओर सामाजिक समुत्थान हेतु जन-जागृति का शंख ही फूँकते रहे। राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, www.jainelibrary.org Mavad
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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