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________________ अभिनन्दन-पुष्प ७३ दीक्षा के पश्चात् आपने जैनशास्त्रों एवं आगमों का गहन अध्ययन कर तपसाधना, संयम, विवेक, ज्ञान एवं चारित्र की कठोर तपस्या की। अपनी दीर्घ दीक्षावधि में आपने उत्तरांचल में जम्मू-कश्मीर से लेकर सुदूर दक्षिण भारत तक पैदल धर्मानुकूल विहार कर कोटि-कोटि जैन व अजैन जनता को अपनी सुमधुर वाणी की ज्ञान-गंगा प्रवाहित कर परोपकार एवं अहिंसा का अमर पाठ पढ़ाया। जैनशास्त्रों के मर्मज्ञ ज्ञाता होने के साथ-साथ आप ज्योतिषशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित भी हैं । नक्षत्रलोक की जानकारी आपकी अध्ययनशीलता की द्योतक है। __ असहाय, अनाथ एवं गरीब भाई-बहनों के लिये तो आप करुणा के सागर ही हैं। विधवा एवं विद्यार्थियों के प्रति आप सदा अति उदार दृष्टिकोण रखते हैं। आपके सदुपदेश से प्रभावित होकर अनेक दानी धर्मप्रेमी सज्जन प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से साधर्मी सहायता का शुभ कार्य करते हैं। इसी तारतम्य में भविष्य में भी ऐसे लोगों को निरन्तर सहयोग प्रदान करते रहने की दृष्टि से गुरुदेवश्री संघों एवं सक्षम व्यक्तियों को साधर्मी सहायता प्रदान करते रहने की प्रेरणा देते रहते हैं । यह पुनीत कार्य भी आपकी साधर्मी-वात्सल्यता, महानता एव हृदय की विशालता को प्रतिबिम्बित करता है। यह गुरुदेव की वाणी एवं व्यवहार की ही विशेषता है कि अनेक व्यक्ति आपसे प्रभावित हैं। क्या जैन और क्या जैनेतर, सभी सम्प्रदाय व धर्म के लोग समभाव से आपके प्रति श्रद्धाभाव रखते हुए आपको नमन करने के लिये आते हैं। गुरुदेव का प्रेम सभी के प्रति समान रहता है । भेदभाव व संकीर्णता को तो इन्होंने अपने जीवन में कभी स्थान दिया ही नहीं। गुरुदेव वर्तमान में दीक्षावधि की दृष्टि से श्रमणसंघ में सबसे बड़े सन्त हैं । आपकी आयु ८६ वर्ष की है तथा आपको संयमी जीवन व्यतीत करते हुए ७२ वर्ष बीत गये हैं। इस दीर्घ दीक्षावधि में संघ ने आपको अनेक बार बड़ी श्रद्धा-भक्ति एवं विनयपूर्वक उपाध्याय, प्रवर्तक, आचार्य, गणी आदि अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर आरूढ़ होने के लिये अनुरोध किया परन्तु आपने हर बार सरल भाव से उन सभी यशस्वी पदों पर आसीन होने के लिये विनम्रतापूर्वक इनकार कर दिया। यह कितनी चारित्रिक व व्यक्तिगत महानता की बात है। . पूज्य गुरुदेव वर्तमान पीढ़ी में उन महान् संतों में से एक हैं जिनके त्यागमय जीवन, आजीवन साधुवृत्ति, वात्सल्य भाव, तप, धर्म व चारित्रिक निर्मलता के कारण भारत आज भी विश्व में महा-मनीषियों का देश बना हुआ है। आप जैसी महान् विभूति किसी देश, सम्प्रदाय अथवा समाज को बड़े पुण्योदय से ही प्राप्त हो सकती है। वर्तमान जैन समाज आपके त्यागमय महान व्यक्तित्व से प्रेरणा प्राप्त करता रहा है और कर रहा है तथा भावी पीढ़ी भी आपके प्रति सदा श्रद्धानत रहेगी। ऐसे महान् सन्तप्रवर को मेरा कोटि-कोटि हृदयगत प्रणाम ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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