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________________ ६८ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ त्याग और करुणा को अक्षय दीप शिखा, शान्त स्वभावी, वयोवृद्ध मुनि श्री कस्तूरचंद जी महाराज मनोहरलाल श्रीमाल " चंचल " चौमुखी - पुल, रतलाम ( म०प्र०) धर्म-भूमि भारतवर्ष का कण-कण पुण्य मय संतों के पवित्र चरण-रज से सदा जगमगाता रहा है । अतीत से आज तक इन महान संतों की त्याग और वैराग्य से परिपूर्ण पावन वाणी ने यहाँ सदैव सरलता, समानता, सहिष्णुता, सद्भाव, मधुरता एवं उदारता जैसे उच्च आदर्शों को स्थापित कर मानव के आध्यात्मिक चिन्तन को एक नई दिशा और नई चेतना दी है। संतों की इसी पावन श्रृङ्खला में मालवा की शस्य श्यामला और सुजला - सुफला भूमि को अक्षय गौरव प्रदान करने वाले महान संत वयोवृद्ध पंडित मुनि श्री कस्तूरचन्दजी महाराज साहब का अद्वितीय स्थान है तभी तो आपको मालव रत्न जैसी परम सम्मानजनक उपाधि और करुणा - सागर जैसे चारित्र - ख्याति द्योतक विशेषणों से विभूषित और अलंकृत कर समाज ने उनकी कीर्ति की प्रखर दीप शिखा को स्वीकारा है । इस धर्म - महारथी ने मध्य प्रदेश के जावरा शहर के वैश्य कुल में स्वर्गीय सेठ श्री रतीचन्द जी चपलोत और परम दयालु माता श्री फूलीबाई के यहां संवत् १९४८ में जन्म लिया | हँसते-खेलते चंचल बालपन तो व्यतीत हो गया पर जल्द ही इन्हें इस मायावी संसार की निस्सारता का बोध हो गया। घर की धार्मिक परम्परा में पली इस महान् प्रतिभा ने सांसारिक आनन्द और भोग-विलास के जीवन को ठुकरा दिया और अपनी किशोरावस्था की प्रथम देहरी पर ही पाँव रखा था कि चौदह वर्ष की अत्यन्त - अल्पआयु में तत्कालीन भारत के महान जैन संत पूज्य श्री खूबचन्दजी महाराज साहब के प्रभाव में आये और अपने बड़े भाई स्वर्गीय श्री केशरीमल जी महाराज साहब के साथ कार्तिक सुदी १३ गुरुवार संवत् १९६२ को दोनों भाइयों ने आजीवन मुनिव्रत की भगवती दीक्षा ग्रहण कर आध्यात्मिक जीवन के कंटकाकीर्ण पथ पर चलकर पद-पद गहन अध्ययन, चिन्तन, मनन, तप, त्याग, सेवा और संयम को जीवन में स्थान दिया । आपने सारे भारतवर्ष के प्रमुख नगरों का भ्रमण एवं चातुर्मास किये हैं और अहिंसा के अवतार चरम तीर्थंकर भगवान महावीर के दिव्य सिद्धान्तों के प्रचार-प्रसार द्वारा अपनी अमृतमय वाणी से मानव मात्र को सत्य और अहिंसा के सुमार्ग का अनुसरण करने की प्रेरणा देकर असंख्यों सुप्त जन-मानस में ज्ञान की लौ जलाई है । आप केवल धर्मोपदेशक मात्र ही नहीं रहे अपितु जीवन के उच्चत्तम आदर्शों को पूरी तरह अपने स्वयं के जीवन में भी उतार कर, मानव समाज के प्रेरणा-स्रोत के रूप में आज सादगी और सरलता की साकार - प्रतिमा बन रतलाम नगर के नीमचौक स्थानक में स्थायी रूप से विराजमान हैं । आप दया के असीम लहराते समुद्र हैं । गजानन्द की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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