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________________ ६६ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ मालव की एक विरल विभूति : शास्त्रज्ञ श्री कस्तूरचन्द जी महाराज प्रर्वतक मुनिश्री उदयचन्दजी महाराज 'जैन सिद्धान्ताचार्य' भारत सदैव ही धर्मप्रधान देश रहा है। इसने मानव-जीवन का लक्ष्य केवल लोकेषणा, वित्तेषणा एवं पुत्रेषणा तक ही सीमित नहीं रखा अपितु उसने मानव-जीवन की सफलता आध्यात्मिक गम्भीरता में आंकी है। इसी आध्यात्मिक श्रृङ्खला में जन-जीवन में संत-परम्परा का जो स्थान है वह परम आदरणीय है । और वह लाखों लोगों की श्रद्धा का केन्द्र है।। इस अक्षुण्ण उज्ज्वल परम्परा को स्थिर रखते हुए हमारे चरित्रनायक मालव रत्न वयोवृद्ध शास्त्रज्ञ श्री कस्तूरचन्द जी महाराज साहब एक महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं। भारत का हृदयस्थल मालव प्रान्त सदैव ही अपनी सुसम्पन्नता, धार्मिकता, सौजन्यता एवं सरलता का घर ही रहा है। इसके रतलाम जिला अन्तर्गत जावरा नामक एक छोटे से नगर में परोपकारी श्रेष्ठिवर्य श्रीमान् 'रतिचन्दजी चपलोत की धर्मप्राण पत्नी श्रीमती फूलबाई की पुनीत कुक्षि से विक्रम संवत् १९४८ की शुभ घड़ी में बालक कस्तूरचन्द ने जन्म लिया' । धर्मपरायण माता-पिता के सुसंस्कारों ने बालक को सहज ही अनुप्रेरित किया। श्रीमान रतिचन्द जी दयालु व्यक्ति थे। उन्होंने संवत् १९५६ के भयंकर दुष्काल में यथाशक्ति और हर संभव प्रयत्नों द्वारा भूखी जनता को सस्ते भावों में अनाज बेचकर अपने मानवोचित धर्म का परिचय दिया था। अस्तु, ऐसे सुसंस्कारी पिता के प्रभाव से बालक किस प्रकार वंचित रह सकता है। अभी हमारे चरित्रनायक ने शैशव को पार ही किया था कि प्रकृति ने उनकी कठोर परीक्षा ले डाली। महामारी प्लेग ने पूरे परिवार के अधिकांश सदस्यों को क्षणभंगुर जीवन का प्रमाण-पत्र देकर केवल ३ व्यक्तियों को इस विराट संसार के कर्म क्षेत्र में विचरण करने के लिए छोड़ दिया। विधि को हमारे चरित्रनायक से महान् परोपकार करवाना था, अतः आप अपने बड़े भाई तथा भौजाई सहित महामारी पर विजय प्राप्त कर जन-कल्याणार्थ स्वस्थ रहे। किन्तु इस घटना से आपका अन्त:करण संसार की क्षणभंगुरता से व्यथित हो उठा और आपने अनुभव किया कि इस जीवन को सही अर्थों में सार्थक बनाने के लिए आध्यात्मिक मोड़ देना चाहिए। फलस्वरूप आप साधुसंतों की सेवा में रहने लगे। ___ योग टलता नहीं है । सुयोग से पूज्य श्री खूबचन्द जी महाराज के जावरा चातुर्मास ने आपको झकझोर डाला । आप पर आध्यात्मिक रंग चढ़ा और हृदय ने निश्चय किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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