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________________ २६ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ कुटुम्बकम्" उदार मनीषीगण के लिए सारा संसार ही अपना है। तदनुसार इस करुणा दृष्टि के पात्र केवल जैन ही नहीं, अपितु कई दुखी-दर्दी, नंगे-भूखे, एवं अनाश्रित जैनेतर मानव भी आपके शीतल नेतृत्व को प्राप्त कर सुख-शांति का अनुभव करते हैं एवं उनके साथ भी वही वात्सल्यभाव का बरताव जो एक जैन के साथ होता है। सर्वत्र-"सर्वे भवन्तु सुखिनो, सर्वे भद्राणि पश्यतु।" मंगलमय इस शुभ भावना के अनुरूप आपके संकेतों पर प्रति वर्ष हजारों रुपयों की साधर्मी-सहायता अनेक प्रांतों में पहुँचाई जाती है । आपका प्रकथन है कि-मुझे नाम नहीं काम चाहिए। इस साधर्मी सहायता कोष को लम्बे समय तक टिकाये रखने के लिए भगवान महावीर की २५००वीं शताब्दी के सन्दर्भ में गुरुदेव के असरकारक उपदेश को कार्यान्वित कर रतलाम श्री संघ ने तत्काल “साधर्मी सहायता" नामक एक फंड की प्रस्थापना करके उसमें स्थायित्व ले आये । ताकि यथाशक्ति यह संस्थासाधर्मी सेवा से परिपुष्ट होती रहे और उत्तरोत्तर विकास भी करती रहे। शान्ति के महान संदेशवाहक "शान्तिमिच्छति साधवः" चरित्रनायक श्री का यह आध्यात्मिक जीवन एवं उपदेश सदैव स्व-पर के लिए स्नेह-शांति-संगठन का महान् प्रतीक रहा है । जहाँ भी आपके चरण-सरोज पहुँचे हैं, वहाँ अशान्ति-अनेक्यता एवं असहयोग के कारणों की परिसमाप्ति करके शान्ति-संगठन-स्नेह की पवित्र त्रिवेणी बहाई है । सुई का कार्यक्षेत्र दो वस्त्र खण्डों को जोड़कर अखण्ड बनाने का है उसी प्रकार बिछुड़े हुए दो भाइयों को मिलाने में, रोते हुए राहगीरों को हँसाने में एवं अनाश्रितों को आश्रय देने में आपकी मनोवृत्ति निरन्तर विराट-विशाल रही है। आपश्री के वरदहस्त इन शुभ कार्यों में हमेशा आगे रहते हैं। इतना ही नहीं फूट-कूट की विकट परिस्थितियों के बीच भी आपके मुख रूपी हिमाचल से निःसृत वाणी पीयूष बरसाती रहती है। सामाजिक बिखराव आपको कतई पसन्द नहीं है । वस्तुतः परिवार एवं संघ समाज में संगठनात्मक स्वच्छ-शांत वातावरण आपको अभीष्ट है। यही कारण है कि कोई भी श्रमण जब आपके सान्निध्य में सेवार्थ उपस्थित होता है तो सर्वप्रथम आप अपने निकट बुलाकर अति शांत-शीतलस्मित मुद्रा में यही फरमाते हैं कि "सभी संतों के साथ हिलमिलकर रहना चाहिए, क्लेश-कदाग्रह व बराबरी करने के लिए नहीं, प्रकृति सम्बन्धी कदाच मेल नहीं मिलने पर भी उनके साथ उलझना अपराध है। अगर कोई ऐसी-वैसी बात हो तो सीधे मुझे कहो। “साधु सोहंता अमृतवाणी" तदनुसार भिक्षु-भिक्षणी वर्ग को चाहिए कि उन्हें व्याख्यान में भी खण्डनात्मक शैली का नहीं मण्डनात्मक शैली का सहारा लेना चाहिए। ताकि लोकप्रियता में अभिवृद्धि होवे । मतलब यह है कि-शांत वातावरण को अशांत बनाना अमृत में जहर मिलाने जैसा है । फलस्वरूप श्रमण का आभूषण शांत भाव में रमण करना है । क्योंकि उपशांत भाव वाला साधक आराधना का पात्र माना है । कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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