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________________ ३९६ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ अष्टांग निमित्त का संक्षिप्त विवरण अंगविज्जा का विषय है जो कुषाण-गुप्त युग के संधिकाल में निर्मित हुआ प्रतीत होता है। शरीर के लक्षणों से अथवा अन्य निमित्त या चिह्नों से शुभाशुभ फल का कथन है । इसमें साठ अध्याय हैं । ग्रह प्रवेश, यात्रारंभ, वस्त्र, यान, धान्य, चर्या चेष्टा, प्रवास, आदि का विवरण ४५वें अध्याय में मिलता है। ५२वें अध्याय में ज्योतिष पिंडों, इन्द्र धनुष, विद्युत काल आदि के निमित्तों के शुभाशुभ दिये गये हैं (अंगविज्जा पृ० २०६-२०६) । लोकविजययन्त्र में ३० गाथाएँ हैं। लोक में सुभिक्ष, दुर्भिक्ष का भविष्य निर्णीत किया गया है। १४५ से १५३ तक के ध्रुवांकों द्वारा स्वस्थान का शुभाशुभ फल का वर्णन मिलता है। गर्दभिल्ल के समकालीन, ईस्वी पूर्व में हुए कालकाचार्य का उल्लेख वराहमिहिर द्वारा वृहज्जातक में किया गया है। यह ग्रन्थ कालक संहिता है। निशीथचूणि तथा आवश्यकचूर्णि से भी इनके ज्योतिष सम्बन्धी ज्ञान पर प्रकाश पड़ता है। (भारतीय ज्योतिष, पृ० १०७)। उनके आस-पास हुए उमास्वामी (स्वाति), द्वारा तत्त्वार्थसूत्र में मेरु को 'ख' अक्ष मान कर प्रक्षेपों में सूर्य चन्द्रादि का गमन और चौथे अध्याय में ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक तथा तारों का उल्लेख किया है। चक्र सदश ये नक्शे बेबिलन तथा अन्य देशों में २५०० ई० पूर्व से प्रचलित अभिलेखबद्ध सामग्री में पाये गये हैं। पूर्वमध्यकाल प्रायः ई० प० ६०० से १००० ई० तक माना जा सकता है। इस काल में ऋषिपुत्र, महावीर (ज्योतिषपटल ?), चन्द्रसेन, श्रीधर आदि ज्योतिषियों ने विशेष अंशदान दिये। अर्हच्चूडामणिसार ७४ प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है । वराहमिहिर के भाई सम्भवतः भद्रबाहु द्वितीय की यह कृति प्रतीत होती है (डा० नेमिचन्द्र, जैन ज्योतिष साहित्य, आ० भिक्षु स्मृति ग्रन्थ, कलकत्ता, १६६१, पृ० २१०-२२१)। सारांश में फलित इस प्रकार वर्णित है: आलिंगित संज्ञक स्वर व्यंजन अ, इ, ए, ओ, क, च, ट, त, प, य, श, ग, ज, ड, द, ब, ल, स (सुभंग, उत्तर, संकट) इतर नाम हैं। अभिधूमित स्वर व्यंजन आ, ई, ऐ, औ; ख, छ, ठ, थ, फ, र, ष, घ, झ, ढ, ध, भ, व, (मध्य, उत्तराधर, विकट) इतर नाम हैं। दग्ध संज्ञक स्वर व्यंजन : उ, ऊ, अं अः, ङ, ञ, ण, न, म इतर नाम (विकट, संकट, अधर, अशुभ) भी हैं। कार्य सिद्धि सभी आलिंगित अक्षर होने पर होती है। प्रश्नाक्षर दग्ध होने पर कार्य सिद्धि नहीं होती। मिश्राक्षरों के शुभाशुभ फल, जय-पराजय, लाभालाभ, जीवन-मरण आदि के विवेचन भी दर्शनीय हैं। यतियों के लिए करलक्खण छोटा ग्रन्थ पठनीय है। सम्भवतः ऋषिपुत्र का प्रभाव वराहमिहिर पर पड़ा। ये गर्ग वंश में हुए। इनका एक निमित्तशास्त्र उपलब्ध है। एक संहिता का भी मदनरत्न नामक ग्रंथ में उल्लेख हैं। वृहत्संहिता की महोत्पली टीका में ऋषिपुत्र के उद्धरण मिलते हैं । दृष्ट, श्रवणित, उत्पात आदि द्वारा प्रकट निमित्तों से शुभाशुभ फल प्रकट किया गया है। हरिभद्र की प्रायः ८८ रचनाओं का पता मुनि जिनविजय द्वारा लगाया गया है। इनकी प्रायः २६ रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं । ये सम्भवतः आठवीं शती के ज्योतिष मर्मज्ञ थे । इन्होंने १४४० ८ Needham, J. & Wang, L., Science and Civilization in China, Vol. III, Cambridge, 1959, pp, 529, 546, 561, 562, 563, 566, 568 & 587. for Concept of Meru, see 531 (d) 563, 568 and 589. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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