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________________ जैन ज्योतिष एवं ज्योतिषशास्त्री ३६३ प्राकृत ग्रंथों के निर्माण एवं निर्माणकर्त्ताओं के काल निर्णय की समस्या अत्यधिक गम्भीर है तथापि परम्परा का काल निर्णय कठिन वस्तु नहीं है । तिलोयपण्णत्ती तथा त्रिलोकसार विषयक ज्योतिष अधिकारों पर लेखक द्वारा प्रकाश डाला जा चुका है ।" इतर ग्रंथों सम्बन्धी यह सामग्री उनकी यथायोग्य रूप में पूरक सिद्ध हो सकेगी । ज्योतिष ज्ञान हेतु काल विषयक सामग्री वीरसेनाचार्य कृत धवला में उपलब्ध है जो पृष्ठ ३१३ से अगले पृष्ठों में सुविस्तृत रूप में वर्णित है । यह कालानुयोगद्वार से अवतरित है ।" (धवला, पु० ४) । समय, निमिष, काष्ठा, कला, नाली तथा दिन, रात्रि, मास, ऋतु, अयन और संवत्सर, इत्यादि काल को जीव, पुद्गल एवं धर्मादिक द्रव्यों के परिवर्तनाधीन माना है । यहाँ परमाणु से लेकर सूर्य चन्द्रादि के व्यवहार सम्मिलित हैं । उपर्युक्त के सिवाय युग, पूर्व, पर्व, पल्योपम, सागरोपम तथा सूर्य के अनन्तानन्त प्रक्षेपों का भी वर्णन महत्त्वपूर्ण है । (तिलोयपण्णत्ती १, २) । पन्द्रह मुहूर्तों के नाम पूर्व परम्परागत प्रतीत होते हैं : रौद्र, श्वेत, मैत्र, सारभट, दैत्य, वैरोचन, वैश्वदेव, अभिजित, रोहण, बल, विजय, नैऋत्य, वारुण, अर्यमन् और भाग्य । ये मुहूर्त दिन सम्बन्धी हैं । रात्रि सम्बन्धी मुहूर्त ये हैं : सावित्र, धुर्य, दात्रक, यम, वायु, हुताशन, भानु, वैजयन्त, सिद्धार्थ, सिद्धसेन, विक्षोभ, योग्य, पुष्पदन्त, सुगन्धर्व तथा अरुण । कभी दिन को छह मुहूर्त जाते हैं और कदाचित् रात्रि में छह मुहूर्त जाते हैं (धवला, पु० ४, पृ० ३१९ ) । नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा तिथियाँ होती हैं । इन पंच दिवसों से पंचदश दिवस वाला पक्ष बनता है । इन तिथियों के देवता क्रम से चन्द्र, सूर्य, इन्द्र, आकाश और धर्म होते हैं । नन्दा आदि तिथियों का नाम प्रतिपदा से प्रारम्भ किया जाता है । द्वितीया - भद्रा, तृतीया - जया है, इत्यादि यह चक्र चलता रहता है । इनका आधार चन्द्र स्पष्ट प्रतीत होता है । पाँच वर्षों के युग के चक्र कल्प तक ले जाते हैं । काल का आधार मनुष्यक्षेत्र सम्बन्धी सूर्यमण्डल किया गया है (वही, पृ० ३२० ) । अतीत, अनागत और वर्तमान रूप काल के अतिरिक्त गुणस्थिति काल, भवस्थिति काल, कर्मस्थिति काल, कार्यस्थिति काल, उपपाद काल और भावस्थिति काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं और आधुनिक विज्ञान के काल विषयक ज्ञान में अत्यन्त सहायक सिद्ध हो सकते हैं (वही, पृ० ३२२) । द्रव्य ( कर्म पुद्गल एवं नोकर्म पुद्गल ) परिवर्तन, क्षेत्र परिवर्तन, काल परिवर्तन, भव परिवर्तन और भाव परिवर्तन काल आधुनिक काल अवधारणाओं में क्रान्ति (द) नाहटा, अ० चं०, जैन ज्योतिष और वैद्यक ग्रंथ, श्री जैन सिद्धान्त भास्कर, आरा, ४.२, सितम्बर १९३७, पृ० ११०-११८ (इ) शास्त्री, ने० चं०, ग्रीकपूर्व जैन ज्योतिष विचारधारा, ब्र० चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ, आरा, १६५४, पृ० ४६२-४६६ (फ) शास्त्री, ने० चं०, भारतीय ज्योतिष का पोषक जैन ज्योतिष, वर्णी अभिनन्दन ग्रंथ, सागर, १९६२, पृ० ४७८-४८४ (क) जैन, ने० चं०, जैन ज्योतिष साहित्य, आचार्य भिक्षु स्मृति ग्रंथ, कलकत्ता, खण्ड ii, १६६१, पृ० २१०-२२१ तिलोयपण्णत्ती - यतिवृषभ, भाग (१) १९४३, भाग (२) १६५१; त्रिलोकसार नेमिचन्द्र, बम्बई (१९२०) सं०, बम्बई, (१९१८) हिन्दी, जम्बूद्वीप पण्णत्तिसंगहो – पउमनंदि, शोलापुर, १६५८, सूरपण्णत्ति, सूरत, १६१६; जम्बूद्दीवपण्णत्ति, बम्बई १९२०, गणितानुयोग, सांडेराव, १६७१; इत्यादि ग्रंथ अवलोकनीय हैं । ५ पुष्पदंत एवं भूतबलि, षट्खण्डागम, धवला टीका ( वीरसेनाचार्य कृत) पु० ४, अमरावती, १९४२ For Private & Personal Use Only ४ Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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