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________________ जैन ज्योतिष साहित्य : एक दृष्टि ३८५ प्रनष्टपर्व और पौरुषी ये इक्कीस पाहड है।१५० नेमिचन्द्र शास्त्री ने इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में लिखा है कि यह प्राचीन ज्योतिष का मौलिक ग्रन्थ है। इसका विषय वेदांग ज्योतिष के समान अविकसित अवस्था में है। इसमें भी नक्षत्र लग्न का प्रतिपादन किया गया है । भाषा एवं रचना शैली आदि के परीक्षण से पता लगता है कि यह ग्रन्थ ई० पू० ३००-४०० का है। इसमें लग्न के सम्बन्ध में बताया गया है लग्गं च दक्षिणाय विसुवे सूवि अस्स उत्तरं अयणे । लग्गं साई विसुवेसु पञ्चसु वि दक्खिणे अयणे ॥ अर्थात्-अस्स यानि अश्विनी और साई यानि स्वाति ये नक्षत्र विषुव के लग्न बताये गये हैं । यहाँ विशिष्ट अवस्था की राशि के समान विशिष्ट अवस्था के नक्षत्रों को लग्न माना है। - इस ग्रन्थ में कृत्तिकादि, धनिष्ठादि, भरण्यादि, श्रवणादि एवं अभिजितादि नक्षत्र गणनाओं की समालोचना की गई है। इसके समकालीन एवं बाद के जैनेतर साहित्य में ज्योतिष की चर्चा है तथा स्वतन्त्र ज्योतिष के ग्रन्थ भी लिखे गये, जो रचयिता के नाम पर उन सिद्धान्तों के नाम से प्रसिद्ध हुए । वराहमिहिर ने अपने पंचसिद्धान्तिका नामक संग्रह ग्रंथ में पितामह सिद्धान्त, वसिष्ठ सिद्धान्त, रोमक सिद्धान्त, पौलिश सिद्धान्त और सूर्य सिद्धान्त इन पाँच सिद्धान्तों का संग्रह किया है । डा० थीबो ने पंचसिद्धान्तिका की अंग्रेजी भूमिका में पितामह सिद्धान्त को सूर्यप्रज्ञप्ति और ऋज्योतिष के समान प्राचीन बताया है, लेकिन परीक्षण करने पर इसकी इतनी प्राचीनता मालूम नहीं पड़ती है । ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य ने पितामह सिद्धान्त को आधार माना है। प्रस्तुत निबन्ध में इन पांचों सिद्धान्तों की तथा ब्रह्मगुप्त के ब्रह्मस्फटिक सिद्धान्त की चर्चा करना विषयेतर ही होगा । अस्तु, यहाँ उनका नामोल्लेख ही पर्याप्त है । इसके साथ ही एक बात और स्पष्ट कर देना उचित होगा कि यह एक निबन्ध है, पुस्तक नहीं । अतः समस्त जैन ज्योतिष साहित्य का विवेचन सम्भव नहीं होगा । प्रमुख जैन ज्योतिषाचार्यों एवं उनके द्वारा रचित साहित्य का विवरण ही दिया जा सकेगा। ऋषिपुत्र-ये जैन धर्मावलम्बी थे तथा ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनके वंश आदि के सम्बन्ध में सम्यक परिचय नहीं मिलता है। लेकिन Catalogue Catalogorum में इन्हें आचार्य गर्ग का पुत्र बताया है। गर्ग मुनि ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे, इसमें कोई सन्देह नहीं है। आर्यभट्ट के पहले हुए ज्योतिषियों में से गर्ग की चर्चा कई स्थानों पर आती है। महाभारत में लिखा है कि गर्ग महर्षि राजा पृथु के ज्योतिषी थे। उनको काल का ज्ञान विशेष रूप से अच्छा था। उनका गार्गी संहिता अब लुप्त हो गया है, परन्तु सम्भव है गणित ज्योतिष के बदले इसमें फलित ज्योतिष की बातें ही अधिक रही हों। वराहमिहिर ने अपने फलित ज्योतिष के ग्रन्थ वृहत्संहिता में गर्ग से कई अवतरण दिये हैं। श्री प्रकाशचन्द्र पाण्ड्या इनका समय ई० पू० १८० या १०० बताते हुए लिखते हैं, "मेरे ख्याल से ये गर्गमुनि के पुत्र नहीं बल्कि शिष्य हो सकते हैं।"५ श्री नेमिचन्द्र शास्त्री लिखते हैं कि इनका (ऋषिपुत्र का) नाम भी इस बात का साक्षी है कि यह १ भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृष्ठ ६८ २ भारतीय ज्योतिष, पृष्ठ ६४-६५ ३ पृष्ठ, ७३ ४ विक्रम स्मृति ग्रंथ, पृष्ठ ७६० ५ बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ, पृष्ठ २२७ ६ भारतीय ज्योतिष, पृष्ठ १०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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