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________________ ३७४ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ घर आकर अपनी धर्मपत्नी राजकुंवर से बोले-प्रिये ! मैं दीक्षा लेना चाहता हूँ। अनुमति के सम्बन्ध में तेरी क्या इच्छा है ? मैं जानना चाहता हूँ। 'आपने बहुत बढ़िया सोचा। मैं भी सोचती हूँ कि ऐसा अवसर मिला नहीं करता है। साध्वी बनकर जीवन बिताऊँ। इस अनित्य-अशाश्वत संसार में कौन अमर रहा है ? परन्तु इन नन्हें-नन्हें बच्चों की ओर देखती हैं तो फिर विचार आता है कि इनका क्या होगा? कौन संभालेगा? मातापिता के बिना यह स्वार्थी संसार इन्हें क्या पालेगा, और क्या पढ़ायेगा ? अतएव मैं आपको इन्कार तो नहीं करती पर जवाहरलाल का विवाह हो जाय, उसके बाद आप और मैं दीक्षित हो जायेंगे।' रात्रि में सभी सो रहे थे। अनायास पड़ोसी के यहां एक नवजात शिशु की मृत्यु हो गई। घरवाले रो रहे थे। रतन चन्दजी की निद्रा टूट गई । अपनी धर्मपत्नी से बोले-'कौन गुजर गया है अचानक ?' 'नाथ ! छह दिन का बालक, आज दुपहर के समय बीमार पड़ा था । वही शायद मर गया है। इलाज भी किया, पर कारी नहीं लगी। काफी वर्षों के पश्चात् घर का आंगन पुत्र से धन्य हुआ था। पर काल ने उसे भी छीन लिया। काल के सामने किस का वश चलता है।' 'अब तू ही बता, दीक्षा के लिए देर करना क्या उचित है ? तू बच्चों को बड़ा करके सभी को रास्ते लगा देना । मुझे जाने दे । भविष्य में तेरे भाग्य में होगा तो देखा जायेगा। इस अवसर पर आपके साले श्री देवीलाल जी बहन-बहनोई से मिलने के लिए आए हए थे। दीक्षा सम्बन्धी बहनोई के विचार सुनकर बोले 'बहनोई साहब ! आप दीक्षा लेना चाहते हैं। बहुत खुशी की बात है। मैं भी आपके साथ होता हैं।' धन्ना-शालिभद्र की तरह श्रीमान रतनचन्दजी और देवीलालजी, साला-बहनोई दोनों वि० सं १९१४ ज्येष्ठ शुक्ला ५ की शुभ वेला में तपस्वी महाराज के चरण कमलों में दीक्षित पांच वर्ष के पश्चात अर्थात १६१९वें वर्ष में अपने शिष्य परिवार के साथ भावी आचार्य प्रवर श्री चौथमलजी म. का कंजार्डी की कठोर धरती पर शभागमन हुआ। उपदेशों की अमत धाराओं से भव्यात्माओं की मानस स्थली प्लावित होने लगी। दर्शनार्थियों के सतत आवागमन से कंजार्डी तीर्थ-भूमि सा प्रतिभासित हो रहा था। असरकार धर्मोपदेश श्रवण कर श्री रतनचन्दजी म० के ज्येष्ठ पुत्र श्री जवाहरलालजी की सुप्त चेतना जाग उठी । अन्तरात्मा में वैराग्य के स्रोत फूट पड़े। दीक्षा लेने की प्रबल इच्छा से प्रेरित होकर अपनी माता राजाकुवर से बोले-'माता ! जिस महान धर्म मार्ग की पिताजी आराधना कर रहे हैं, मैं मी उसी मार्ग का अनुसरण करना चाहता हूँ। दीक्षा के लिए जल्दी मुझे आज्ञा दीजिए।' __ 'बेटा ! अभी नन्दा छोटा है । एक वर्ष ठहर जा, उसके बाद तू, हीरा, नन्दा और मैं चारों दीक्षित तो जायेंगे । एक साथ दीक्षा लेना अच्छा रहेगा। विनीत पुत्र जवाहरलाल ने माता की बात मान्य की। मुनि मण्डल ने मारवाड़ की ओर बिहार किया। सं १९२० का चौमासा फलौदी (मारवाड़) में हुआ। इस चौमासे में कंजार्डा का श्री संघ आचार्यदेव के सान्निध्य में विनती पत्र लेकर फलोदी पहुँचा--चातुर्मास पूर्ण होने के पश्चात मुनि मण्डल कंजार्डा पधारे। बहाँ अखण्ड सौभाग्यवती राजकुवर बाई अपने तीन पुत्रों के साथ प्रबल वैराग्य से प्रेरित होकर दीक्षा लेने की भावना रखती हैं। यह महान महोत्सव आचार्य प्रवर के हाथों से सम्पन्न हो, ऐसी कंजार्डा श्री संघ की भावना है। इसलिए हमारी विनती मान्य की जाय।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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