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________________ ३७० मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ वरिष्ठ सन्त सेवा में पधार गये । अन्ततोगत्वा सं० १९९० आषाढ़ बदी १२ सोमवार के दिन आप स्वर्गवासी हुए। आपके रिक्त पाट पर चारित्र-चूड़ामणि-त्यागी-तपोधनी पूज्य प्रवर श्री खूबचन्दजी म. सा. आसीन किये गये। आदर्श त्यागी आचार्य प्रवर श्री खूबचन्दजी म० सा० जन्म गांव-निम्बाहेड़ा (राजस्थान) १६३० कार्तिक शुक्ला ८ गुरुवार । दीक्षा संवत्-१९५२ अषाढ़ शुक्ला ३ । दीक्षा गुरु-वादीमान मर्दक श्री नन्दलालजी म० । स्वर्गवास-सं० २००२ चैत्र शुक्ला ३ ब्यावर नगर में। वि० सं० १९३० कार्तिक शुक्ला अष्टमी गुरुवार के दिन निम्बाहेड़ा (चित्तौड़गढ़) के निवासी श्रीमान टेकचन्दजी की धर्मपत्नी गेन्दीबाई की कुशि से आपका जन्म हुआ था। शैशवकाल सुखमय बीता, विद्याध्ययन हुआ और हो ही रहा था कि पारिवारिक सदस्यों ने अति शीघ्रता कर सं० १६४६ मार्गशीर्ष शुक्ला १५ के दिन विवाह भी कर दिया। बालक खुबचन्द शर्म के वजह से न नहीं कर सके। समयानुसार वास्तविक बातों का ज्यों-ज्यों ज्ञान हुआ, त्यों-त्यों खूबचन्द अपने जीवन को धार्मिक क्रियाकाण्ड अनुष्ठानों से पूरित करने लगे और उसी प्रकार सांसारिक क्रियाकलापों से भी दूर रहने लगे-जैसा कि वर्षों तक कनक रहे जल में, पर कायी कभी नहीं आती है। यों शुद्धात्म जीव रहे विश्व में, नहीं मलीनता छाती है ।। बस विवाह के छह वर्ष पश्चात् अर्थात् १९५२ आषाढ़ शुक्ला ३ की शुभ वेला में वादीमान मर्दक गुरु प्रवर श्री नन्दलालजी म. सा. के नेश्राय में उदयपुर की रंगस्थली ने आप दीक्षित हुए। दीक्षा के पश्चात, गुरु भगवंत श्री नन्दलाल जी म० मा० ने स्वयं आपको शास्त्रीय तलस्पर्शी अध्ययन करवाया, अपना निजी अनुभव और भी अनेकानेक उपयोगी सिखावनों से आपको होनहार बनाया। फलस्वरूप आपका जीवन दिनोंदिन महानता व विनय गुण से महक उठा। कई बार गुरु प्रवर श्री नन्दलालजी म. सा. अन्य मुमुक्षओं के समक्ष फरमाया भी करते थे किश्री उत्तराध्ययनसूत्र के प्रथमाध्याय के अनुरूप खूबचन्द जी मुनि का जीवन विनय गुण गौरव से ओत-प्रोत है। यह कोई दर्पोक्ति नहीं है। क्योंकि-आप द्वारा रचित भजन, लावणियों में आपने अपना नाम सर्वथा गोपनीय रखा है। और गुरु भगवंत के नाम की ही मुहर लगाई है, जैसाकि"महा मुनि नन्दलाल तणांशिष्य" यह विशेषता आपके नम्रीमत जीवन की ओर संकेत कर रही है। आपका जीवन त्याग-वैराग्य से लवालब परिपूर्ण-सम्पूर्ण था। व्याख्यान वाणी में वैराग्य रस प्रधान था। स्वर अति मधुर व गायन कला सांगोपांग और आकर्षक थी। अतएव उपदेशामृत पान हेतु इतर जन भी उमड़-घुमड़ के आया करते थे। असरकारक वाणी प्रमावेण कई मुमुक्ष आपके नेश्राय में दीक्षित हुए थे। वर्तमान काल में स्थविर पद विभूषित ज्योतिधर पं० रत्न श्री कस्तूरचन्द जी म. सा० आपके ही शिष्यरत्न हैं। और हमारे चरित्रनायक आपके गुरु भ्राता व प्रवर्तक श्री हीरालाल जी म. सा० व तपस्वी श्री लामचन्द जी म. सा० आपके प्रशिष्य हैं। आपके अक्षर अति सुन्दर आते थे। इस कारण आपकी लेखन कला भी स्तुत्य थी। आप अपने अमूल्य समय में कुछ न कुछ लिखा ही करते थे। चित्रकला में भी आप निपुण थे। आज भी आपके हस्तलिखित अनेकों पन्ने सन्त मण्डली के पास मौजूद हैं। जो समय-समय पर काम में लिया करते हैं । आप कवि के रूप में भी समाज के सम्मुख आये थे। आप द्वारा रचित अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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