SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६८ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्ध जीवन हो जाने के विवाह योजना को वहीं ठण्डी करके संयम ग्रहण करने का निश्चय कर लिया। दिनों-दिन वैराग्य भाव-सरिता में तल्लीन रहने लगे। येन-केन-प्रकारेण दीक्षा भावों की मन्द-मन्द महक उनके माता-पिता तक पहुंची। काफी विघ्न भी आये लेकिन आप अपने निश्चय पर सुदृढ़ रहे। काफी दिनों तक घर पर ही साध्वोचित आचार-विचार पालते रहे । अन्ततः खूब परीक्षा जांच पड़ताल कर लेने के पश्चात् माता-पिता व त्याती-गोती सभी वर्ग ने दीक्षा की अनुमति प्रदान की। महा मनोरथ-सिद्धि की उपलब्धि के पश्चात् पू० प्रवर श्री शिवलालजी म. के आज्ञानुगामी मुनि श्री हर्षचन्दजी म. के सान्निध्य में सं० १८९८ चैत्र शुक्ला ११ गुरुवार की शुभ बेला में दीक्षित हुए। दीक्षा ब्रत स्वीकार करने के पश्चात् पूज्य श्री शिवलालजी म० की सेवा में रहकर जैन सिद्धान्त का गहन अभ्यास किया। बुद्धि की तीक्ष्णता के कारण स्वल्प समय में व्याख्यान-वाणी व पठन-पाठन में श्लाघनीय योग्यता प्राप्त कर ली । सदैव आप आत्म-भाव में रमण किया करते थे। प्रमाद-आलस्य में समय को खोना; आपको अप्रिय था। सरल एवं स्पष्टवादिता के आप धनी थे। अतएव सदैव आचार-विचार में सावधान रहा करते थे व अन्य सन्त महन्तों को भी उसी प्रकार प्रेरित किया करते थे। आपकी विहार स्थली मुख्य रूपेण मालवा और राजस्थान ही थी। किन्तु भारत में सुदूर तक आपके संयमी जीवन की महक व्याप्त थी। आपके ओजस्वी भाषणों से व ज्योतिर्मय जीवन के प्रभाव से अनेक इतर जनों ने मद्य, मांस व पशुबलि का जीवन पर्यन्त के लिये त्याग किया था और कई बड़े-बड़े राजा-महाराजा जागीरदार आपकी विद्वत्ता से व चमकते-दमकते चेहरे से आकृष्ट होकर यदा-कदा दर्शनों के लिये व व्याख्यानामृत-पान हेतु आया ही करते थे। अन्य अनेक ग्राम नगरों को प्रतिलाभ देते हुए आप शिष्य समुदाय सहित रतलाम पधारे। पार्थिव देह की स्थिति दिनों-दिन दबती जा रही थी। बस द्रतगत्या मुख्य-मुख्य सन्त व श्रावकों की सलाह लेकर पूज्यप्रवर ने अपनी पैनी सूझ-बूझ से भावी आचार्य श्री चौथमलजी म. सा. का नाम घोषित कर दिया। चतुर्विध संघ ने इस महान योजना का मुक्त कंठ से स्वागत किया। आपके शासनकाल में चतुर्विध संघ में आशातीत जागति आई। इस प्रकार सम्बत् १९५४ माघ शुक्ला १३ के दिन रतलाम में पूज्य श्री उदयसागरजी म. सा० का स्वर्गवास हो गया। पूज्यप्रवर श्री चौथमलजी महाराज जन्म गांव-पाली (मारवाड़, राजस्थान)। दीक्षा संवत्-१६०६ चैत्र शुक्ला १२ । दीक्षागुरु-आ० श्री शिवलालजी म० । स्वर्गवास-१६५७ कार्तिक मास, रतलाम। पूज्यप्रवर श्री उदयसागर जी म. के पश्चात् सम्प्रदाय की सर्व व्यवस्था आपके बलिष्ठ कंधों पर आ खड़ी हुई। आप पाली मारवाड़ के रहने वाले एक सुसम्पन्न ओसवाल परिवार के रत्न थे। आपकी दीक्षा तिथि १९०९ चैत्र शुक्ला १२ रविवार और आचार्य पदवी सम्वत् १९५४ मानी जाती है। पू० श्री उदयसागर जी म० को तरह आप भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र के महान् धनी और उग्र विहारी तपस्वी सन्त थे। यद्यपि शरीर में यदा-कदा असाता का उदय हआ ही करता था तथापि तप-जप स्वाध्याय व्याख्यान में रत रहा करते थे। अनेकानेक गुण-रत्नों से अलंकृत आपका जीवन अन्य भव्यों के लिए मार्गदर्शक था। आपकी मौजूदगी में भी शासन की समुचित सुव्यवस्था थी और पारस्परिक संगठन स्नेहभाव पूर्ववत् ही था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy