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________________ • ३५४ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ अतिचार दूसरों का विवाह कराना, पर-स्त्री या पर-पूरुष-गमन करना, तथा विषय-मोग की तीव्र अभिलाषा करना ये इसके प्रमुख अतिचार हैं । रागात्मक कहानियाँ या अश्लील साहित्य के अध्ययन का परित्याग करना ब्रह्मचर्य को दृढ़ता प्रदान करता है । इसके द्वारा मानव को sex भावना को मर्यादित तथा समाज से तत्सम्बन्धी दोषों को दूर करने का प्रयत्न किया गया है । आज वैज्ञानिक विकास की ओर बढ़ने के साथ-साथ मानव अपना चारित्रिक पतन स्तर तेजी से नीचे गिराता जा रहा है। आज नवयुवकों एवं नवयुवतियों में मादक द्रव्यों का सेवन जैसेसिगरेट, शराब, अफीम आदि एवं डेटिंग प्रथा अत्यधिक रूप से प्रचलित हो रही है। यद्यपि आज वैज्ञानिकों ने खोज द्वारा स्पष्ट कर दिया कि मादक द्रव्यों के सेवन से कैन्सर, क्षय, रक्तचाप, आदि भांति-भांति की बीमारियां फैल रही हैं जो कि प्राणघातक सिद्ध हो रही हैं। आज व्यक्ति फैशन में इतना आगे बढ़ चुका है कि उन्हें अपनी संस्कृति एवं सभ्यता का ख्याल नहीं है और पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति को अपनाकर उसे भूलता जा रहा है यद्यपि आज पाश्चात्य लोग भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति अपना रहे हैं और आध्यात्मिक शान्ति की खोज हेतु उनका भारत आगमन जारी है। आज वर्तमान में उत्पन्न इन समस्याओं का समाधान इस व्रत में अन्तनिहित है। अतः आज इस व्रत का पालन विश्व के सभी मानवों के लिए अत्यन्त आवश्यक है। इसके पालन से अनेकों समस्याओं का निराकरण सम्भव होने के साथ-साथ मानव को आत्मिक-मानसिक शान्ति अवश्यमेव प्राप्त होगी और नैतिक स्तर उन्नति पर होगा। साथ-साथ शारीरिक आरोग्य और शारीरिक शक्ति प्राप्त कराने में सहायक सिद्ध होगा। परिग्रह संग्रह का दूसरा नाम परिग्रह है । ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ने मूर्छाभाव अर्थात् ममत्व भावना को ही परिग्रह का नाम दिया है। तात्पर्य यह है कि जहाँ राग है, ममता है, लोलुपता है वहाँ बाह्य वस्तु का संसर्ग चाहे न हो पर परिग्रह अवश्य है। आज मानव में संग्रह वृत्ति व्यापक रूप से फैल गई है और यही कारण है कि आज मानव को अपने जीवन यापन की वस्तुएँ प्राप्त करने के लिए अनेक कठिनाई उत्पन्न हो रही है। यह समस्या हमारे देश में ही नहीं अपितु विश्व के अनेक देशों में व्यक्त है। वैसे अगर देखा जाय तो हमारे देश में यह समस्या आंशिक रूप से जरूर है लेकिन इसको विरुट रूप देने का श्रेय पूंजीपति, काले धन का व्यापार करने वाले, स्मलिग का व्यापार करने वालों को है। क्योंकि अनावश्यक रूप से संग्रह, बाहरी देशों को निर्यात कर अधिक धन कमाने के लालच में व्यापार करने वाले लोगों ने संग्रह कर रखा है और दूसरी तरफ गरीब मजदुर जो कि रोज मजदूरी करके रोज अन्न खरीदता है उसे अन्न प्राप्ति के लिए अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। आज देश में अनेकों लोग ऐसे हैं जिन्हें पेट भर भोजन नहीं मिलता है दूसरी और संग्रह किया गया अन्न सड़ रहा है, तब क्या यह संग्रह वृत्ति उचित है ? परिग्रह रूप लोम का पारावार नहीं है। इस वृत्ति या लोभ के कारण आज समाज एवं देशों में अनेकोंथिक विषमताएँ, विरोध, अशांति, आंदोलन, संघर्ष आदि उत्पन्न हो रहे हैं। इसके निवारा, एवं नियन्त्रणों पर अधिक जोर दिया जा रहा है। कानूनों के माध्यम से अनेक प्रयत्न किए जा रहे हैं जो असफल होते जा रहे हैं क्योंकि उनसे मानव की मनोवृत्ति शुद्ध नहीं होती और ननों से उसकी मानसिक वृत्ति छलकपट और अनाचार की ओर बढ़ने लगती है। जैनधर्म में आदर्श गहस्थ के नैतिक विधान के अन्तर्गत संग्रह वृत्ति को अम्यन्तर चेतना द्वारा नियन्त्रित करने का प्रयत्न किया गया है और अपने कुटुम्ब पालन आदि के विचार को ध्यान रख अपने स्वयं परिग्रह की सीमा निर्धारित करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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