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________________ जैनधर्म के आधारभूत तत्त्व एक दिग्दर्शन ३१३ कालरूप द्रव्य का गुण वर्तना है, नवीन का पुराना होना व पुराने का नवीन रूप होता है । जीव द्रव्य का गुण उपयोग है-बोधरूप व्यापार और चेतना । वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य आकाश लोक अलोक सर्वत्र व्याप्त है। धर्म और अधर्म केवल लोकाकाश तक ही रहते हैं तो जीव और पुद्गल भी लोकाकाश में ही रहते हैं। काल भी जीव और पुद्गल के आधार से केवल लोकाकाश तक ही रहता है। काल द्रव्य को छोड़कर शेष सभी द्रव्य अस्तिकाय रूप हैं। इसीलिए इन्हें पञ्चास्तिकाय कहते हैं । अस्ति का अर्थ है प्रदेश और काय का अर्थ है समूह । पाँच द्रव्य प्रदेश समूह रूप होने से अस्तिकाय हैं । काल के प्रदेश नहीं होते अतः वह अस्तिकाय नहीं है । जीव और पुद्गल द्रव्य सक्रिय हैं, शेष निष्क्रिय हैं । सप्त तत्त्व-तत्त्व सात है । आत्मा के लिए उपयोगी होने वाले द्रव्यों में से जीव तथा पुद्गल ये दो 'मुख्य ही द्रव्य हैं। इनके संयोग और वियोग से होने वाली अगणित अवस्थाओं को निम्न भागों में बाँट सकते हैं। १ आसव २ बन्ध ३ संवर ४ निर्जरा और ५ मोक्ष इनमें आसव और बन्ध, जीव और पुद्गल की संयोगी अवस्थाएं हैं। संबर एवं निर्जरा उन दोनों की वियोगजन्य अवस्थाएँ हैं । इनमें जीव और पुद्गल को और मिला देने पर सात की संख्या हो जाती है । इन्हीं को जैनदर्शन में सात तत्त्व अथवा सप्त तत्त्व कहा जाता है। प्रत्येक आत्महितेच्छुक व्यक्ति को इन सातों का ज्ञान करना अनिवार्य है। बौद्धदर्शन में चार आर्य सत्य हैं-१ दुःखी २ समुदय ३ निरोध ४ मार्ग का विवेचन । वह जैनदर्शन के इन सात तत्वों के समान है। बौद्धदर्शन का जो आर्य सत्य दुःख है वह जैनदर्शन का बन्ध है। बौद्धदर्शन का " समुदय" आर्य सत्य है वह जैनदर्शन का आस्रव है। निरोध आर्य सत्य मोक्ष तत्व है; मार्ग आर्य सत्य संवर तथा निर्जरा के समान है। देही को देह के ममत्वभाव से पृथक् करने के लिए सात तत्वों का सम्यक् परिशीलन आवश्यक है । प्रमाण और नय इन तात्विक और व्यावहारिक सभी पदार्थों का यथार्थ ज्ञान करने के लिए जैन विचारकों ने उपादेय तत्त्व एवं ज्ञायक तत्व के रूप में प्रमाण, नय सप्तभंगी एवं स्याद्वाद आदि का भी बहुत सुन्दर विवेचन किया है जो जैनदर्शन की भारतीय दर्शन को एक अनूठी वेन है नय सप्तमंगी स्वादवाद इन अधिगम प्रकारों का जनदर्शन में ही वर्णन उपलब्ध हैं। वस्तु के पूर्ण अंश का ज्ञान जहाँ हम प्रमाण से करते हैं वहाँ नय से हमें उसके सापेक्ष अंशों का बोध होता है। इस प्रकार स्याद्वाद पद्धति से हम जैनदर्शन के हार्द का ज्ञान कर सकते हैं। यही जैनदर्शन का आचार और विचार पक्ष है । 'जैनं जयति शासनम्' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org/
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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