SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 345
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१० मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ अभिप्राय यह है कि शब्द की अपेक्षा से शास्त्र अनित्य है। किन्तु भावों की अपेक्षा से शास्त्र अनादि अनन्त है। भाव का अर्थ है विचार, विचार का अर्थ है ज्ञान । वेदान्त और जैनदर्शन ने ज्ञान को अनन्त माना है। न कभी उत्पन्न होता है, न कभी नष्ट होता है। भगवान की वाणी का सार है-अहिंसा और अनेकान्त-महावीर सर्वज्ञ थे, अहिंसा के अग्रणी थे। इन्हीं सब अहिंसा के दृष्टिकोणों को लक्ष्य में रखकर उन्होंने अपने अमूल्य प्रवचन में कहा सव्वे जीवावि इच्छन्ति जीविउंन मरिज्जिउं। सभी जीव-जीवन के लिए आकुल है। किसी भी धर्म-क्रिया में किसी भी जीव का घात करना पाप है। सभी जीवन के लिए आतुर है। सभी की रक्षा करना धर्म है। भगवान का सन्देश है कि सव्व-जग-जीव-रक्खण दयट्टयाए । भगवया पावयणं सकहियं । अहिंसा के पूर्ण अर्थ के द्योतन के लिए अनुकम्पा, दया, करुणा आदि शब्दों का प्रादुर्भाव हुआ है। तत्त्व बोध-आचार और विचार की विचारणा के साथ-साथ तत्व-चिन्तन पर भी अधिक जोर दिया है। क्योंकि परम्परा की नींव तत्व पर आधारित है। जिस प्रकार विना नींव के भवन नहीं रह सकता उसी प्रकार बिना तत्त्व के कोई भी परम्परा जीवित नहीं रह सकती। वैशेषिक दर्शन में सात पदार्थ माने गये हैं तो न्यायदर्शन सोलह पदार्थ स्वीकार करता है। सांख्य दर्शन ने पच्चीस तत्त्व स्वीकार किये हैं। मीमांसादर्शन वेद विहित कर्म को सत् मानता है। वेदान्त दर्शन एकमात्र ब्रह्म को ही सत् मानता है शेष सर्व असत् है-माया है।' बौद्धदर्शन ने चार आर्य सत्य कहे हैं । जनदर्शन ने दो तत्व, सप्त तत्व व नौ तत्व स्वीकार किए गए हैं । दो तत्त्व हैंजीव और अजीव । सप्त तत्त्व हैं-जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध व मोक्ष ! नौ तत्व है-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष । जैनदर्शन सम्मत इन तत्वों में केवल अपेक्षा के आधार पर ही संख्या का भेद है मौलिक नहीं। भगवान महावीर ने इस समग्र संसार को दो राशि में विभक्त किया है-जीव राशि और अजीव राशि । नव तत्त्वों में संवर-निर्जरा और मोक्ष जीव के स्वरूप होने से जीव से मिन्न नहीं है। आस्रव, बन्ध, पुण्य एवं पाप अजोव के पर्याय विशेष होने से अजीव राशि के अन्तर्गत आ जाते हैं। इस अपेक्षा से देखा जाये तो जैन दर्शन द्वितत्त्ववादी है। सांख्यदर्शन भी वही कहता है। वह भी मूलरूप में दो तत्त्व स्वीकार करता है-प्रकृति और पुरुष । शेष तत्त्वों का समावेश वह प्रकृति में ही कर लेता है। तत्त्व की परिभाषा-जनदर्शन में विभिन्न स्थानों में व विभिन्न प्रसंगों पर सत्, सत्व, तत्त्वार्थ, अर्थ, पदार्थ और द्रव्य का प्रयोग एक ही अर्थ में किया गया है अतः ये शब्द पर्यायवाची है । आचार्य उमास्वाति ने तत्वार्थसूत्र में, तत्वार्थ सत् और द्रव्य शब्द का प्रयोग तत्व अर्थ में किया है । अतः जैनदर्शन में जो तत्व है वह सत् है । जो सत् है, वह द्रव्य है । शब्दों का भेद है, मावों का नहीं। आचार्य नेमिचन्द्र ने कहा है कि द्रव्य के दो भेद हैं-जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य । शेष संसार इन दोनों का ही प्रपंच है, विस्तार है। बौद्धाचार्य से प्रश्न किया कि सत् क्या है ? उत्तर मिला कि-यत् क्षणिकं तत् सत्-इस दृश्यमान विश्व में जो कुछ भी है वह सर्व क्षणिक जो क्षणिक है वह सर्व सत् है। वेदान्तदर्शन का कथन है कि जो अप्रच्युत अनुत्पन्न एवं १ ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy