SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 340
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जनदर्शन में जनतांत्रिक सामाजिक चेतना के तत्त्व ३०५ तो तस्करवृत्ति को पनपने का अवसर मिलता है और न उपनिवेशवादी वृत्ति को बढ़ावा मिलता है। सातवें व्रत में अपने उपभोग में आने वाली वस्तुओं की मर्यादा करने की व्यवस्था है । यह एक प्रकार का स्वैच्छिक राशनिंग सिस्टम है । इससे व्यक्ति अनावश्यक संग्रह से बचता है और संयमित रहने से साधना की ओर प्रवृत्ति बढ़ती है। इसी व्रत में अर्थार्जन के ऐसे स्रोतों से बचते रहने की बात कही गयी है जिनसे हिंसा बढ़ती है. कृषि उत्पादन को हानि पहुंचती है और असामाजिक तत्वों को प्रोत्साहन मिलता है। भगवान महावीर ने ऐसे व्यवसायों को कर्मादान की संज्ञा दी है और उनकी संख्या पन्द्रह बतलायी है। आज के संदर्भ में इंगालकम्मे जंगल में आग लगाना, वणकम्मे - जगल आदि कटवाकर बेचना, असईजणपोसणया – असंयति जनों का पोषण करना अर्थात् असामाजिक तत्वों को पोषण देना, आदि पर शेक का विशेष महत्व है। - - यह (३) लोक-कल्याण जैसा कि कहा जा चुका है महावीर ने संग्रह का निषेध नहीं किया है बल्कि आवश्यकता से अधिक संग्रह न करने को कहा है। इसके दो फलितार्थ है - एक तो कि व्यक्ति अपने लिए जितना आवश्यक हो उतना ही उत्पादन करे और निष्क्रिय बन जाय दूसरा यह कि अपने लिए जितना आवश्यक हो उतना तो उत्पादन करे ही और दूसरों के लिए जो आवश्यक हो उसका भी उत्पादन करे । यह दूसरा अर्थ ही अभीष्ट है । जैनधर्म पुरुषार्थं प्रधान धर्म है अतः वह व्यक्ति को निष्क्रिय व अकर्मण्य बनाने की शिक्षा नहीं देता । राष्ट्रीय उत्पादन में व्यक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका को जैनदर्शन स्वीकार करता है पर वह उत्पादन शोषण, जमालोरी और आर्थिक विषमता का कारण न बने. इसका विवेक रखना आवश्यक है। सरकारी कानून कायदे तो इस दृष्टि से समय-समय पर बनते ही रहते हैं पर, जैन साधना में व्रत -नियम, तप त्याग और दान दवा के माध्यम से इस पर नियन्त्रण रखने का विधान है। तपों में वैयावृत्य अर्थात् सेवा को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसी सेवा भाव से धर्म का सामाजिक पक्ष उमरता है। जैन धर्मावलम्बियों ने शिक्षा, चिकित्सा, छात्रवृत्ति, विधवा सहायता आदि के रूप में अनेक ट्रस्ट खड़े कर राष्ट्र की महान सेवा की है। हमारे यहां शास्त्रों में पैसा अर्थात् रुपयों के दान का विशेष महत्व नहीं है । यहाँ विशेष महत्व रहा है- आहारदान, ज्ञानदान, औषधदान और अभयदान का स्वयं भूखे रह कर दूसरों को भोजन कराना पुण्य का कार्य माना गया है। अनशन अर्थात भूखा रहना अपने प्राणों के प्रति मोह छोड़ना, प्रथम तप कहा गया है पर दूसरों को भोजन, स्थान, वस्त्र आदि देना, उनके प्रति मन से शुभ प्रवृत्ति रखना, वाणी से हितकारी वचन बोलना और शरीर से शुभ व्यापार करना तथा समाज सेवियों व लोक सेवकों का आदर-सत्कार करना भी पुण्य माना गया है। इसके विपरीत किसी का भोजन-पानी से विच्छेद करना - भत्तपाणबुच्छए, अतिचार, पाप माना गया है । महावीर ने स्पष्ट कहा है-जैसे जीवित रहने का हमें अधिकार है जैसे ही अन्य प्राणियों को भी । जीवन का विकास संघर्ष पर नहीं, सहयोग पर ही आधारित है । जो प्राणी जितना अधिक उन्नत और प्रबुद्ध है, उसमें उसी अनुपात में सहयोग और त्यागवृत्ति का विकास देखा जाता है । मनुष्य सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है । इस नाते दूसरों के प्रति सहयोगी बनना उसका मूल स्वभाव है । अन्तःकरण में सेवा भाव का उदक तभी होता है जब "आत्मवत् सर्वभूतेषु" जैसा उदात्त विचार शेष सृष्टि के साथ आत्मीय सम्बन्ध जोड़ पाता है। इस स्थिति में जो सेवा की जाती है। वह एक प्रकार से सहज स्फूर्ति सामाजिक दायित्व ही होता है। लोककल्याण के लिये अपनी सम्पत्ति विसर्जित कर देना एक बात है और स्वयं सक्रिय घटक बन कर सेवा कार्यों में जुट जाना दूसरी बात है। पहला सेवा का नकारात्मक रूप है जबकि दूसरी में सकारात्मक रूप इसमें सेवा व्रती "स्लीपिंग पार्टनर” बन कर नहीं रह सकता, उसे सजग प्रहरी बन कर रहना होता है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy