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जैन संस्कृति में -
अहिंसा के इतिहास की सुनहरी कड़ियाँ
[ श्री गणेशमुनि शास्त्री
होने लगता है उस समय इस आर्यभूमि पर दिव्य होता है । वह नरपुंगव अपने प्रभास्वर व्यक्तित्व के दमन करता है ।
जब मानव समाज में आसुरीवृत्ति चरमोत्कर्ष पर पहुँच जाती है, और हिंसा का विप्लव दृष्टि वाले किसी न किसी नरपुंगव का जन्म द्वारा समाज में फैली हुई आसुरीवृत्ति का
धरती का आदिमानव जब गड़बड़ाने लगा - संघर्ष और आक्रमण बढ़ने लगे, मनुष्य के मन में हिंसा प्रतिहिंसा की भावनाएँ जाग्रत होने लगीं, उस समय में अहिंसा के आद्य प्रणेता भगवान् ऋषभदेव ने अवतरित होकर मानव जाति के अव्यवस्थित जीवन को यथावत् मर्यादित एवं संस्कारित किया । कृषि के माध्यम से अन्नाहार का आविष्कार किया । क्रियात्मक अहिंसा के इतिहास में यह एक महत्वपूर्ण आलेख है । डा० कामताप्रसाद जैन ने 'विदेशी संस्कृतियों में अहिंसा' शीर्षक निबन्ध में तीर्थंकर कालीन हिंसा-अहिंसा के विकास का ब्यौरा देते हुए बतलाया कि.............“भगवान् ऋषभदेव के पश्चात् कालक्रम से २३ तीर्थंकर हुए हैं। वे भी अहिंसा धर्म के प्रचारक थे। ऋषभदेव से १८ तीर्थंकरों पर्यन्त अहिंसा धर्म का प्राबल्य रहा। किन्तु तीर्थंकर मल्ली और मुनिसुव्रत के काल में यहाँ आसुरी वृत्ति का श्रीगणेश हुआ । असुरों ने आकर अहिंसक ब्राह्मणों को भगाकर पशु यज्ञ करने की कुप्रथा को जन्म दिया, तभी से यहाँ हिंसा-अहिंसा का द्वन्द्व चला ।" १
सोलहवें तीर्थंकर भगवान् शान्तिनाथ ने मेघरथ राजर्षि के भव में एक कपोत की प्राणरक्षा कर विश्व को अहिंसा प्रेम का पाठ पढ़ाया। मौत के मुख से किसी प्राणी को बचाना यह धर्म का उच्च आदर्श है । प्रस्तुत आदर्श के संरक्षणार्थं ही राजर्षि ने अपने शरीर के मांस को काटकर क्षुधापीड़ित व्याध को अर्पण कर दिया, किन्तु शरणागत कपोत की उपेक्षा नहीं की । करुणा के उस मसीहा ने प्राणों की ममता त्यागकर भी कपोत की जान बचाई ।
और अहिंसा धर्म की पुष्टि के ही संदर्शन
प्रस्तुत घटनाचक्र में मांसाहार का निषेध होते हैं ।
भगवान् अरिष्टनेमि का जीवन तो अहिंसा के इतिहास का एक उज्ज्वल पृष्ठ रहा है । उन्होंने अपने विवाह प्रसंग पर होने वाले 'पशु-वध दयार्द्र होकर सदा-सदा के लिए विवाह से ही मुख मोड़ लिया । प्रज्ञाचक्षु पण्डित सुखलालजी ने 'जैन संस्कृति का अन्तर्हृदय' शीर्षक निबन्ध में भगवान् नेमिनाथ के जीवन तत्त्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- " एक समय था जबकि केवल
९ गुरुदेव श्री रत्नमुनि स्मृति ग्रन्थ, पृ० सं० ४००
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उत्तराध्ययन सूत्र अ० २२
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