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________________ २६४ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ परम्परा के नाम से विश्रत है। उसकी प्रारम्भ से ही यह मान्यता रही है, कि न केवल जड़ पदार्थ ही बन्ध का कारण है, और न अकेला चेतन आत्मा ही। पुद्गल-जड़ पदार्थ का शुद्ध रूप परमाणु है । जब तक परमाणु अपने शुद्ध रूप में रहता है, तब तक वह कर्म-बन्ध के योग्य नहीं होता है। आत्मा भी अपने स्वरूप में स्थित रहता है, अपने शुद्ध स्वभाव में परिणमन करता है, तब बन्ध नहीं करता । अतः अपने शुद्ध स्वभाव में एवं शुद्ध स्वरूप में स्थित पुद्गल और आत्मा दोनों ही बन्ध के योग्य नहीं है। जब पुद्गल अपने शुद्ध स्वरूप परमाणु रूप न रहकर परमाणुओं के संयोग से बने स्कन्ध की विभाव दशा में परिणत होता है, तब वह बन्ध की योग्यता प्राप्त करता है अथवा कार्मण-वर्गणा की संज्ञा को प्राप्त होता है । आत्मा भी जब स्वभाव से विभाव में परिणत होता है, तब कर्म से आबद्ध होता है। अतः बन्ध स्वभाव में नहीं, विभाव-दशा में होता है और कर्म प्रवाह की अपेक्षा से वह अनादि है-उसकी आदि नहीं है। अनन्त-अनन्त काल ने उसका प्रवाह चला आ रहा है। एक कर्म अपना फल देकर आत्म-प्रदेशों से अलग होता है, तो दूसरा उसका स्थान ले लेता है । इस प्रकार उसका प्रवाह टूटने नहीं पाता। बन्ध और मोक्ष आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार करने वाले तथा उसे शरीर आदि जड़ पदार्थों से सर्वथा भिन्न मानने वाले सभी भारतीय विचारकों ने बन्ध और मोक्ष को स्वीकार किया है। तथागत बुद्ध क्षणिकवादी हैं और अनात्मवादी भी कहे जाते हैं, फिर भी वे आत्मा के बन्ध, मोक्ष एवं पुनर्जन्म को मानते हैं। सभी विचारकों ने अविद्या, मोह, अज्ञान, मिथ्या ज्ञान और मिथ्यात्व को कर्म-बन्ध एवं संसार-परिभ्रमण का कारण माना है, और विद्या, तत्त्व-ज्ञान, सम्यज्ञान और स्व-स्वरूप के बोध-सम्यक्त्व को मोक्ष का, मुक्ति का एवं निर्वाण का कारण माना है। कठोपनिषद् में कहा है-श्रेयस् और प्रेयस् दो मार्ग हैं और एक-दूसरे से भिन्न एवं विपरीत है। विषय-जन्य इन्द्रिय-सुख तथा भौतिक-सुख-साधनों की प्राप्ति का मार्ग जो है, वह प्रेयस् है, और आध्यात्मिक-साधना, तत्त्व-ज्ञान, आत्म-चिन्तन का, जो मार्ग है, वह श्रेयस्-पथ है । प्रेयस् के साथ बाह्य आकर्षण, अनुराग एवं ममत्व का भाव जुडा हुआ है और श्रेयस् के साथ समभाव एवं स्वभाव रमण का भाव संबद्ध है। आधुनिक नीति-शास्त्र (Ethics) में इन उभय दृष्टियों कोThe end as pleasure (Hedonism- ऐन्द्रिक-सुखवाद) और The end as good (आत्मआनन्दवाद) कहा है। योग-सूत्र भाष्य में कहा है-चित्त नदी की दो धाराएँ हैं-एक सुख मार्ग की ओर बहती है, और दूसरी कल्याण के मार्ग की ओर अथवा एक इन्द्रिय-जन्य मोगों की ओर बहती है, और दूसरी अध्यात्म-साधना की ओर । बुद्धिमान एवं विवेकशील साधक का कर्तव्य है, कि वह द्वितीय मार्ग का अवलम्बन करे। क्योंकि जो विषय भोगों में तृप्त होकर परम शान्ति एवं आनन्द पाने की कामना रखता है, वह लोलुप व्यक्ति अतृप्त रहता है और दुःख को ही प्राप्त करता है । इन्द्रिय-मोग व्यक्ति को तृष्णा से रहित नहीं करते।२ श्रमण भगवान महावीर ने यही बात कही है-संसार के कामभोग, इन्द्रिय-जन्य वैषयिकसुख एवं भौतिक-सुख-साधन शल्य है, विष हैं, और आशीविष सर्प के तुल्य हैं। जो काम-मोगों की इच्छा एवं आकांक्षा तो रखते हैं, किन्तु परिस्थितिवश उनका भोग एवं सेवन नहीं कर पाते, वे भी दुर्गति में जाते हैं । वास्तव में तृष्णा की आग कभी शान्त नहीं होती। वह आकाश की १ योग-सूत्र, व्यास भाष्य, १,१२ • २ वही, २,१५ ३ उत्तराध्ययन सूत्र, ६,५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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