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________________ २८८ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ से कतिपय संज्ञी मनुष्य और संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच प्राणियों को उत्पन्न होता है । फिर भी सभी के अवधिज्ञान में तरतमता अवश्य रहती है, एक समानता नहीं । गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के छह भेद इस प्रकार हैंअनुगामी - ज्ञानी के साथ-साथ रहने वाला । अननुगामी -- उत्पत्ति के स्थान तक सीमित, आगे नहीं । हीयमान- उत्तरोत्तर क्षीणता की ओर बढ़ने वाला । वर्तमान- उत्तरोत्तर विकसित होने वाला । अवस्थित - कायम रहने वाला । अनवस्थित- उत्पन्न होकर पुनः नष्ट हो जाय । मनः पर्यवज्ञान " मनः पर्यवज्ञान" यह विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष का दूसरा विशिष्ट विशुद्धि से और मनः पर्यवज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से संज्ञी प्राणियों के मनोगत भावों को जानने में सक्षम होता है । यद्यपि अवधिज्ञान की अपेक्षा मनः पर्यवज्ञान विशुद्ध अवश्य है पर जानने का क्षेत्रफल मनः पर्यवज्ञान का काफी संकीर्ण और सीमित रहा हुआ है । उसका कारण यह है कि उन देहधारियों की आन्तरिक भूमिका जैसी चाहिए वैसी उच्चस्तरीय नहीं रहती और दूसरा कारण है तत्सम्बन्धी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की प्रतिकूलता । इस कारण मनः पर्यवज्ञान न नारकीय जीवों को, न देवलोक वासियों को, न पशु-पक्षियों को, और न नर-नारियों को होता है । केवल ऋद्धि प्राप्त, अप्रमत्त, संयत, समदृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमि के गर्भज मनुष्यों को उत्पन्न होता है 13 इसके मुख्य दो भेद है— ऋजुमति और विपुलमति । शुद्धता की दृष्टि से दोनों में कुछ तरतमता अवश्य रही हुई है । * केवलज्ञान सम्यग्दर्शन आदि अन्तरंग सामग्री और तपश्चरण आदि बाह्य सामग्री से समस्त घाति (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय) कर्मों का मूलतः क्षय होने पर १३ वे गुणस्थानाधिपति आत्मा को उत्पन्न होने वाला समस्त द्रव्य और पर्यायों को जानने वाला ऐसा केवलज्ञान उत्पन्न होता है । उसे सकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष भी कहते हैं । १ अहवा गुण पडिवन्नस्स, अणगारस्स ओहिनाणं समुपज्जइ तं समासओ - छव्विहं पण्णत्तं, तं जहां —-आणुगामियं, अणाणुगामियं, हीयमाणयं, बड्ढमाणयं, पडिवाइयं, अपडिवाइयं...... -नन्दीसूत्र & २ संयम विशुद्धिनिबन्धनाद् विशिष्टावरण विच्छेदाज्जातं मनोद्रव्य - पर्यायालम्बनं मनःपर्यायज्ञानम् । -प्रमाणनयतत्वालोक २।२२ गोमा ! इड्ढीपत्त अपमत्त संजय सम्मदिट्ठी पज्जत्तग-संखेज्जवासाउय, कम्मभूमिय-गव्भवaiतिय मणुस्साणं, नो अगिड्ढीपत्त - अपमत्त संजय समदिट्ठी पज्जत्तग संखेज्जवासाज्य कम्म भूमिय गब्भवक्कंत्तिय मणुस्साणं मनपवज्जनाणं समुपज्जई । - नन्दी सूत्र १७ - तत्वार्थ सूत्र १२४/२५ ३ भेद है । संयमी क्रियाओं की उत्पन्न होता है । जो केवल ४ ५ ऋजु विपुलमति मनःपर्याय: विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः । सकलं तु सामग्री विशेषतः समुद्भूतं समस्तावरण क्षयापेक्षं । निखिल द्रव्य पर्याय साक्षात्कारि स्वरूपं केवलज्ञानम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only -प्रमाणनयतत्वालोक २।२३ www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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