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________________ सम्यकज्ञान : एक समीक्षात्मक विश्लेषण २८५ जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता की अपेक्षा रखता है, उस ज्ञान को परोक्ष प्रमाण की श्रेणी में गिना है। क्योंकि वह अस्पष्ट है। इसलिए मति और श्रुतज्ञान परोक्ष माने हैं। जो ज्ञानानुभूति इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना केवल आत्म-भाव से प्रगट होती है, उसे पारमार्थिक प्रत्यक्ष प्रमाण की संज्ञा दी गयी है। क्योंकि वह स्पष्ट है। इसीलिए अवधि, मन:पर्यव और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण की श्रेणी में माना है। मति (आभिनिबोधिक) ज्ञान जिस ज्ञान में इन्द्रिय और मन की प्रवृत्ति हो और शास्त्रादि रूप श्रुति की प्रधानता न हो, उसे मतिज्ञान कहा गया है।५ मतिज्ञान पाँच इन्द्रियों से और छठे मन से उत्पन्न होता है। उसके मुख्य भेद निम्न हैं। अवग्रह अवाय धारणा जैसे प्रत्येक मनुष्य शिशु, बालक, कुमार, युवक, प्रौढ़ आदि अवस्थाओं को क्रमपूर्वक ही प्राप्त करता है, उसी प्रकार उपयोग भी दर्शन, अवग्रह आदि अवस्थाओं को पार करता हुआ ही धारणा की अवस्था प्राप्त करता है । यह क्रिया अतिशीघ्र हो जाती है। इसी कारण क्रम का अनुभव नहीं होता। एक-दूसरे के ऊपर कमल के सौ पत्ते रखकर उनमें नुकीला भाला चुभो दिया जाय तो वे सब पत्ते क्रम से ही छेदे जायेंगे, पर यह मालम नहीं पड़ जाता कि-भाला कब पहले पत्ते में पहुँचा, कब उससे बाहर निकला, कब दूसरे पत्ते को छेदा इत्यादि । इसका कारण गति का तीव्र प्रवाह है । जब भाले का वेग इतना तीव्र हो सकता है तो ज्ञान जैसे सूक्ष्मतर पदार्थ का वेग उससे मी अधिक तीव्र क्यों न होगा?७ दूर से ही जो अव्यक्त ज्ञान होता है, उसे अवग्रह कहते हैं। अवग्रह के द्वारा जाने हुए सामान्य विषय को विशेष रूप से जानने की विचारणा को "ईहा", ईहा के द्वारा जाने हुए पदार्थों में विशेष का निर्णय होना "अवाय" और अवाय ज्ञान जब दृढ़ हो जाता है, तब धारणा की कोटि में गिना जाता है। उक्त चारों प्रकार का अव्यक्त ज्ञान कभी स्पर्शनेन्द्रिय से, कभी रसनेन्द्रिय से, कभी घ्राणेन्द्रिय से, कभी चाइन्द्रिय से कभी श्रोत्रेन्द्रिय से और कभी मन से होता है। १ अस्पष्टं परोक्षम् । -प्रमाणनय तत्त्वालोक ३१ २ आये परोक्षम् । -तत्वार्थसूत्र ११११ ३ पारमाथिकं पुनरुत्पत्तावात्म मात्रापेक्षम् -प्र० न० त० २०१८ ४ प्रत्यक्षमन्यत् -तत्वार्थसूत्र १११२ ५ तन्द्रिय मनो निमित्तं श्रुतानुसारी ज्ञानं मतिज्ञानम्। -जैन तर्क भाषा-मतिज्ञान स्वरूप ६ (क) अवग्रहेहावायधारणा: -तत्वार्थसूत्र १११४ (ख) एतद् द्वितयमवग्रहेऽवायधारणा मेदादेकशश्चतुर्विकल्पकम् । -प्रमाणनयतत्त्वालोक २१६ ७ क्वचित् क्रमस्यानुपलक्षणमेषामाशुत्पादात्, उत्पलपत्र शतव्यति भेद क्रमवत् । -प्रमाणनयतत्त्वालोक २०१७ ८ (क) अवकृष्टोग्रह अवग्रहा । (ख) अवग्रहीतार्थ विशेषाकांक्षणमीहा। (ग) ईहित विशेष निर्णयोऽवायः । (घ) स एव दृढ़तमावस्थापन्नो धारणा। -जैन तर्कभाषा-अवग्रह स्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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