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________________ २४८ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ उनकी गुरु-परम्परा मौनी भट्टारक श्री हरिषेण, भरतसेन, हरिषेण इस प्रकार बैठती है । आपने कथाकोष की रचना वर्धमानपुर या बढ़वाण- बदनावर में विनायक पाल राजा के राज्यकाल में की थी । विनायकपाल प्रतिहार वंश का राजा था, जिसकी राजधानी कन्नौज थी । इसका ८८ वि० सं० का एक दान पत्र मिला है। इसके एक वर्ष पश्चात् अर्थात् ६८६ शक संवत् ८५३ में कथाकोष की रचना हुई । हरिषेण का कथाकोष साढ़े बारह हजार श्लोक परिमाण का बृहद् ग्रन्थ है । (३) मानतुंग - इनके जीवन के सम्बन्ध में अनेक विरोधी विचारधारायें हैं । इनका समय ७वीं या दवीं सदी के लगभग माना जाता है । इन्होंने भक्तामर स्तोत्र का प्रणयन किया जिसका श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदाय वाले समान रूप से आदर करते हैं । कवि की यह रचना इतनी लोकप्रिय रही कि इसके प्रत्येक अन्तिम चरण को लेकर समस्या पूर्त्यात्मक स्तोत्र काव्य लिखे जाते रहे । इस स्तोत्र की कई समस्या पूर्तियाँ उपलब्ध हैं । (४) आचार्य देवसेन - मार्गशीर्ष सुदि १० वि० सं० ६६० को धारा में निवास करते हुए पार्श्वनाथ के मन्दिर में 'दर्शनसार' नामक ग्रन्थ समाप्त किया । इन्होंने 'आराधना सार' और 'तत्त्वसार' नामक ग्रन्थ भी लिखे । 'आलाप पद्धति' 'नयचक्र' आदि रचनायें आपने धारा में ही लिखीं अथवा अन्यत्र यह रचनाओं पर से ज्ञात नहीं होता । (५) आचार्य महासेन --ये लाड़ बागड़ संघ के पूर्णचन्द्र थे । आचार्य जयसेन के प्रशिष्य और गुणाकरसेन सूरि के शिष्य थे । इन्होंने 'प्रद्युम्न चरित' की रचना ११वीं शताब्दी के मध्य में की। ये मुंज के दरबार में थे तथा मुंज द्वारा पूजित थे। न तो इनकी कृति में ही रचना काल दिया हुआ है और न ही अन्य रचनाओं की जानकारी मिलती है । (६) अमितगति - ये माथुर संघ के आचार्य थे । माधवसेन सूरि के शिष्य थे । वाक्पतिराज मुंज की सभा के रत्न थे । विविध विषयों पर आपके द्वारा लिखी गई कृतियाँ उपलब्ध हैं (क) सुभाषित रत्न संदोह की रचना वि० सं० ६६४ में हुई । इसमें ३२ परिच्छेद हैं, जिनमें प्रत्येक में साधारणतः एक ही छन्द का प्रयोग किया गया है। इसमें जैन नीतिशास्त्र के विभिन्न दृष्टिकोणों पर आपाततः विचार किया गया है; साथ-साथ ब्राह्मणों के विचारों और आचार के प्रति इसकी प्रवृत्ति विसंवादात्मक है । प्रचलित रीति के ढंग पर स्त्रियों पर खूब आक्षेप किये गये हैं । एक पूरा परिच्छेद २४ वेश्याओं के सम्बन्ध में है । जैनधर्म के आप्तों का वर्णन २८ वें परिच्छेद में किया गया है। (ख) धर्म परीक्षा बीस साल अनन्तर लिखा गया है। इसमें भी ब्राह्मण धर्म पर आक्षेप किये गये हैं और इससे अधिक आख्यानमूलक साक्ष्य की सहायता ली गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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