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________________ २४६ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ किया। उस समय उत्तर में 'इन्द्रायुध', दक्षिण में कृष्ण के पुत्र श्री वल्लभ व पश्चिम में वत्सराज तथा सौरमंडल में वीरवराह नामक राआओं का राज्य था। यह वर्धमानपुर सौराष्ट्र का वर्तमान बढ़वाण माना जाता है। किन्तु मैंने अपने लेख में सिद्ध किया है कि हरिवंशपुराण में उल्लिखित वर्धमानपुर मध्यप्रदेश के धार जिले में बदनावर है जिससे १० मील की दूरी पर दोस्तरिका होना चाहिए; जहाँ की प्रजा ने जिनसेन के उल्लेखानुसार उस शांतिनाथ मंदिर में विशेष पूजा-अर्चा का उत्सव किया था। इस प्रकार वर्धमानपुर में आठवीं शती में पार्श्वनाथ और शांतिनाथ के दो जैन मंदिरों का होना सिद्ध होता है । शांतिनाथ मंदिर ४०० वर्ष तक विद्यमान रहा। इसके प्रमाण हमें बदनावर से प्राप्त अच्छुप्तादेवी की मूर्ति पर के लेख में प्राप्त होते हैं, क्योंकि उसमें कहा गया है कि संवत् १२२६ (ई० सन् ११७२) की वैशाख कृष्णा पंचमी को वह मूर्ति वर्धमानपुर के शांतिनाथ चैत्यालय में स्थापित की गई। विदिशा क्षेत्र में भी जैनधर्म इस युग में उन्नतावस्था में था जिसका प्रमाण है वहाँ उपलब्ध जैनमंदिर व मूर्तियां । ग्यारसपुर नामक स्थान पर जैन मंदिर के भग्नावशेष मिले हैं । मालवा में जैन मंदिरों के जितने भग्नावशेष मिले हैं, उनमें प्राचीनतम अवशेष यहीं पर है जो विन्यास एवं स्तम्भों की रचना शैली में खजुराहो के समान है। फर्गुसन ने इनका निर्माणकाल १०वीं सदी के मध्य निर्धारित किया है। इस काल के और भी अनेक अवशेष इस क्षेत्र में मिले हैं। साथ ही यदि इन सब अवशेषों का विधिवत संकलन एवं अध्ययन किया जाय तो जैन वास्तुकला के एक दीर्घरिक्त स्थान की पूर्ति हो सकती है। राजपूतकालीन खजुराहो शैली के कुछ जैन मंदिर खरगोन जिले के 'ऊन' नामक स्थान में मिले हैं। इन मंदिरों की उपलब्धि से यह प्रमाणित हो जाता है कि इस समय इस क्षेत्र में जैनधर्म अपनी उन्नति के शिखर पर था। ऊन में वैसे (१) हिन्दू और (२) जैन मंदिरों के दो समूह प्राप्त हुए हैं। जो कला की दृष्टि से अपना विशेष महत्त्व रखते हैं। यहाँ बहुत बड़ी मात्रा में जैन मूर्तियां भी मिली हैं जिन पर वि० सं० ११८२ या ११९२ के लेख अंकित हैं जिससे यह विदित होता है कि यह मूर्ति आचार्य रत्नकीति द्वारा निर्मित की गई थी। यहां के मंदिर पूर्णत: पाषाण खण्डों से निर्मित हैं, चिपटी छत व गर्भगृह, सभामंडपयुक्त तथा प्रदक्षिणापथ रहित हैं जिससे इनकी प्राचीनता सिद्ध होती है। भित्तियों और स्तम्भों पर सर्वांग उत्कीर्णन है, जो खजुराहो की कला से समानता रखता है। ११वीं सदी के जैन मंदिरों के कुछ अवशेष नरसिंहगढ़ जिला राजगढ़ (ब्यावरा) १ History of Indian and Eastern Architecture, Vol. II, page 55. २ वही, पृ० ५५ ३ Progress Report of Archaeological Survey of India,W.C. 1919, page 61. ४ भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृष्ठ ३३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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