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________________ २३८ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ विद्यापीठ महर्षि सान्दीपनि की कुटिया में 'कृष्ण-सुदामा' की पवित्र मित्रता का स्मरण कराता है । राजकुमार चन्द्रप्रभ और उनके गुरु कालसंदीय क्रमशः सत्रह एवं अठारह भाषाओं के ज्ञाता थे । वे धनुर्विद्या में निपुण और महावीर स्वामी के निकट जैन मुनि हो गये थे ।' वैसे उज्जयिनी नगरी संसार प्रसिद्ध रही है। उसने विभिन्न कालों में भिन्न-भिन्न धर्म-धाराओं को आत्मसात् कर न केवल मालवा की यशोगाथा वरन् भारत की कीर्तिपताका को विश्व आकाश में फहराया है । दक्षिण भारतीय जैन साहित्य में उज्जयिनी का यशोगान - तमिल साहित्य के दो महाकव्यों में "शीलप्पदिकारम्” की रचना एक जैनधर्मावलम्बी राजकुमार ने की थी । इसके छठे परिच्छेद में उज्जयिनी का वैचित्र्यपूर्ण उल्लेख है । जिससे ज्ञात होता है कि एक समय था, जब उज्जयिनी नगरी उत्तर भारत की प्रमुख नगरी थी । अवन्ती नरेश ने चोलराज का स्वागत मणिमुक्ताओं से जड़े हुए तोरण द्वार बनवाकर किया था, जिसकी बनावट देखते ही बनती थी । २ जैन शिलालेखों में मालवा और उज्जयिनी - श्रवण बेलगोला (मैसूर) के चन्द्रगिरि पर्वत पर शक संवत् ५२२ के एक शिलालेख में आचार्य भद्रबाहु को उज्जयिनी में अवस्थित बताया है । उन्हें अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता और त्रिकालदर्शी कहा गया है | उन्हीं ने १२ वर्ष के अकाल पड़ने की घोषणा की थी । सन् १९१२२ के एक सिद्धेश्वर मन्दिर ( कल्लूर गुडेड) के शिलालेख में आचार्य सिंहनन्दी का वर्णन है । इसमें उल्लेख है कि उज्जैन के राजा महीपाल ने इक्ष्वाकु नरेश पद्मनाभ को पराजित किया था । इस कारण उनके दो पुत्र दक्षिण भारत चले गये और आचार्य सिंहनन्दी की सहायता से वहाँ उन्होंने 'गंग राज्य' की स्थापना की । ४ गुणाढ्य की 'वड्डकहा, मेरुतुंगाचार्य की 'प्रबन्धचिन्तामणि', बौद्ध जातक तथा जैन पुराणों में समाहित अनेकों कथानकों में मालव प्रदेश और उज्जजिनी नगरी के जैन मतावलम्बी श्रेष्ठि समाज की कथा गाथाओं और वैभव सम्पन्नता का उल्लेख मिलता है । इसके अतिरिक्त मालवा और उसकी प्राचीन नगरियों से सम्बन्धित सामग्री का संकलन, सम्पादन, प्रकाशन और युक्तियुक्त विश्लेषण की अपेक्षा रखता है, जिससे कि अतीत के गर्भ में विस्मृत मालव संस्कृति पुन: प्रकाश में आ सके । मालवा विविध धर्म-सम्प्रदायों का प्रवर्तन केन्द्र भी रहा है । परन्तु जैनधर्म की दृष्टि से मालव भूमि की उर्वरा शक्ति उतनी ही प्रबल रही, जितनी अन्यान्य धर्मों और धार्मिक विचारधाराओं के लिये । कालचक्र का अनवरत् प्रवाह इस धरती को भी स्पर्श करता रहा है और अपने अमिट चिन्ह छोड़ता रहा है, जिनके अवशेष १ हरिषेण कथाकोष ( श्री भद्रबाहु की कथा देखिये ) २ "दि शीलप्पदिकारम्" (आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस) पृष्ठ १२२-१२३ ३ जैन शिलालेख संग्रह, पृष्ठ २ ૪ सेल्फेयर : 'मिडिवल जैनिज्म' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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