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________________ २ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ मतलब यह है कि - दोनों ही संस्कृतियाँ अपनी-अपनी स्वतन्त्र पद्धति से मानव को देवत्व की ओर ले जाकर परमात्मा के स्वरूप में मिलाने का प्रयत्न करती हैं। दोनों ही संस्कृतियों का ध्येय मोक्ष है और साधना धर्म है । अन्तर इतना है कि- वैदिक संस्कृति विचार प्रदान तो श्रमण संस्कृति आचार प्रदान रही है। वैदिक संस्कृति के संरक्षक प्रायः ब्राह्मण रहे तो श्रमण संस्कृति के संरक्षक प्रायः श्रमण संत रहे हैं । दोनों संस्कृतियों का विशाल साहित्य भण्डार है । प्रस्तुत में हम श्रमण संस्कृति के एक ऐसे ही संरक्षक श्रमण का जीवन परिचय, व्यक्तित्व का प्रभावक रूप और कृतित्व की अमर रेखाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं जिनसे मानव जगत को सदा मार्गदर्शन मिलता रहा है, दानवीय वृत्तियों की ऊष्मा से संतृप्त मानवता को सत्य, शील, संतोष, क्षमा, धैर्य की शीतल छाया में आश्रय मिलता रहा है । जिन्होंने संसार को प्रकाश, उल्लास और विश्वास का आलम्बन दिया है । आकर्षण का केन्द्र मँझला कद, गौर वर्ण, भरा-पूरा वदन, उन्नत ललाट, चमकते चेहरे पर सदा बिखरती - खिलती रहने वाली मुस्कान, मुख से निस्सृत होने वाली अमृत-सी मीठी वाणी, सतत, शान्ति बरसाने वाले युगल नेत्र, भयभीतों को अभय वरदान से पूरित करने वाले कर कमल, सबने मिलाकर ऐसे अनूठे अनुपम व्यक्तित्व का निर्माण किया है, जो चुम्बक की तरह आगन्तुक अतिथि को पहले ही क्षण अपनी ओर खींच लेता है । जिन्हें हम स्थविरपद- विभूषित, मालवरत्न, परमश्रद्धेय, ज्योतिषाचार्य, करुणा सागर, प्रातः स्मरणीय गुरुदेव श्री कस्तूरचन्द जी महाराज के नाम से पहचानते हैं । उनके व्यक्तित्व में एक अनोखा आकर्षण है सरलता, ऋजुता, उदारता, हृदय की पवित्रता, माधुर्यता एवं दयालुता उनके जीवन की परम निधि है, परम धरोहर है । जावरा निवासी ओसवाल वंशीय चपलोत गोत्रीय स्व० श्रीमान् रतीचन्द जी अपनी धर्मप्रिया फूलीदेवी के साथ दाम्पत्य जीवन बिता रहे थे । वि० सं० १६४६ जेठ - वदी १३ रविवार की शुभ घड़ी पल में माता फूली ने हमारे चरित्रनायक को जन्म दिया । कस्तूरचन्द के नाम से जिनकी प्रख्याति हुई । जिस प्रकार कस्तूरी की महक से सारा वातावरण महक उठता है, उसी प्रकार कस्तूरचन्द के जन्म पर सारे चपलोत परिवार में खुशियों की खुशबू महक उठी । लालन-पालन सुखपूर्वक होने लगा । श्रीमान् रतीचन्द जी एक अच्छे व्यवसायी सद्गृहस्थ थे । कुछ समय तक नबाब के मोदी खाने में कार्य करते रहे, फिर भाग्य ने करवट ली तो अफीम के व्यापार विनिमय में काफी धनराशि उपार्जन की । सं० १९५६ के वर्ष में देशवासी दुष्काल की भयंकर चपेट में घिर चुके थे । अन्न-जल के अभाव में हजारों मानव, पशु एवं पक्षी काल के विकराल गाल में समा गये । उस समय दीर्घद्रष्टा रतीचन्द जी ने धन-धान्य से मानवों की सेवा करके एक आदर्श श्रावक - जीवन का परिचय दिया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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