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________________ १९२ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ (३१) भूले - भटके पथिकों को, सद्राह आपसे मिलती है। एक बार भी दर्शन करले, मुझित कलियां खिलती हैं। (३२). अन्धकार को दूर हटाने, ज्ञान आपने पाया है। धन्य आपके मात-पिता हैं, जीवन धन्य बनाया है। (३३) राजस्थान-गुजरात और भी, भ्रमण किया है उत्तर देश। बंगाल, आन्ध्र, पंजाब, केरला अति घूमे हैं मध्य प्रदेश । (३४) तमिलनाडु अरु कर्नाटक में, विहार किया है देश बिहार । जम्मू तक पहुंचाई है, अमृतमय वाणी प्रियकार ॥ जैनागम विशारद हिमकर, प्रवचन शैली है प्यारी । जो धारे जीवन में अपने, बन जाता वह गुणधारी ।। (३६) मन के निर्मल, तन के निर्मल, निर्मल ऋजुता के सागर । नहीं ज्ञान से गर्वित होते, अहो! मुनि गुण रत्नाकर ॥ (३७) व्यक्तित्व और कृतित्व समन्वय, हुआ आपकी वाणी में । पवित्र-प्रेम पाने की आशा, करते हैं हर प्राणी में । (३८) रहे सदा जयवंत प्रवर्तक, यही कामना होती है। सफल भावना, सफल कामना, निश्चल मन की ज्योति है ।। __ (३९) उज्ज्वल गौरव समाज का है, जो करते हैं अभिनन्दन । मेरा भी ले लेवें मुनिवर ! चरणों में शत-शत वन्दन ।। (४०) प्रतिदिन-प्रतिपल अभिनन्दन, हर मुनि आपका करते हैं। 'विजय मुनि' शुभ मंगलदायी, पवित्र-प्रेरणा वरते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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