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________________ (१३) पवित्र चरित्र सरस सौरभ से, समाज- वाटिका महकती है । भद्र प्रकृति के अमर देवता, कीर्ति तुम्हारी दमकती है ॥ (१४) स्याद्वाद सिद्धान्त मर्मज्ञ हो, धर्मज्ञ हो, शासन की शान हो । ज्ञान हो, भान हो, भगवान हो, भव्यों के लिए तुम प्राण हो ॥ - (१५) उदारता, विशालता सरलता - ऋजुता गुण के तुम धनी हो । भण्डार हो कि आधार हो, धरणी हो कि जननी हो ॥ - (१६) अरे ! ओ ! शान्ति के अग्रदूत, जग पग पग तुम्हें स्मरता है । तव चरणमणि का पाकर स्पर्श, जीव शिवानन्द को वरता है ॥ (१७) निर्लेप हो तुम माया-व्यथा से, ममत्व भाव से कोसों दूर हो । अनासक्ति के कर्मठ साधक साधना मार्ग में तुम शूर हो ॥ (१८) Jain Education International भेद- कैद का भेद छेद कर, अपनाई जीवन में निश्चलता है । समुद्र इव गांभीर्यता और, हिमवान इव अचलता है ॥ शुभकामना एवं श्रद्धाचंन (१६) अहिंसामय उपदेश - सन्देश, जन जन को जागृत करता है । सत्यं शिवं जीवन तेरा, जन जन में प्रेरणा भरता है ॥ · (२०) संगठन स्नेह के तुम हिमायती, कड़ी से कड़ी जोड़ने वाले हो । तुम्हारी शान के तुम ही हो, और आग बुझाने वाले हो | (२१) महकता आध्यात्मिक जीवन पुष्प, अनुभव में क्षीर सागर हो । श्रुत रत्नों से ज्योर्तिमान, मानो शीतल सुधाकर हो ॥ (२२) १७७ विमल ज्ञान के निर्मल निर्झर कमल दल अमल योगी मस्त । गुण गरिमा महिमा महान, कौमुदी वत् करणी है स्वस्थ || (२३) धन्य पिता रतिलाल और, धन्य माता कूंख 'फूली' है । धन्य शहर जावरा हुआ, धन्य धन्य महिमा खुली है ॥ (२४) धन्य समाज हुआ तुमको पाकर, चारों ओर कीर्ति चमक उठी है । धन्य मंगल दर्शन करके छाई हर्ष की छटा अनूठी है ।। (२५) चन्द श्रद्धा सुमन से, चरण पूजूं में खास । 'कस्तूर' गुरु प्रताप से 'रमेश' फले सब आश ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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