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________________ सन्देश १६३ शुभ युगल मुनियों के चरणों में भावांजलि ॥ घोर तपस्वी वक्ता श्री विमलमुनिजी महाराज कामना भारतीय ऋषि-मुनियों की अनेकानेक मौलिक विशेषताएँ इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर अंकित हैं । ऐहिक सुख-सुविधाओं का परित्याग कर शान्त, दान्त, एकान्त स्थान में शत् सहस्र वर्षों तक त्रय योगों को संयम की खरी कसौटी पर कसा व तपाया है। तदनन्तर ही मुनिवृन्द ने इस आर्य भूमि की चप्पा-चप्पा कंकरी को अपने ज्ञान सुधा से प्लावित किया है विशालता, उदारता, निर्लोभता, परमार्थता, त्याग-तप-संयम, साधना की क्या कहूँ कथा। स्याद्वाद पूर्ण शैली अहा ! कैसी अनुपम सत्यता, आर्य सन्त की अनूठी महिमा स्व-पर की हरेत व्यथा ।। महामुनियों ने अपने मन-मस्तिष्क को सदैव विशाल, विस्तृत एवं छुआछूत की बीमारी से पृथक रखा है। चाहे कोई भी जाति-पांति वाला क्यों न हो ? सभी को समान रूप से समझा है। उनका अमृतोपम उपदेश सभी के लिए समान रहा है। किसी एक पंथ की जंजीरों में नहीं बँधे रहे। बल्कि उनके लिए तो “वसुधैव कुटुम्बकम्" रहा है। वे मानव के अन्त:स्थल को झंकृत करने वाले मलय समीर सदृश वाटिका से लेकर राजप्रासाद तक समान रूप से अपना ज्ञान खजाना लुटाते रहे हैं। अनवरत रत्नत्रय की कठोर साधना के पश्चात् उन्हें जो नवनीत प्राप्त हुआ, उसे उन्होंने उदारतापूर्वक "भर-भर मुट्ठी भर-भर देवे" इस कथनानुसार दिल खोलकर जन-साधारण को लाभान्वित किया है। यह ज्ञानविज्ञान एवं अनुभव मेरा है। मैंने कठोरतम साधना के बलबूते इस निधि को प्राप्त किया है। मैं अन्य किसी को क्यों दूं?' ऐसी संकीर्ण एवं कुत्सित भावना उनके हृदय में कभी भी नहीं रही है। वैसे तो आवश्यकतानुसार महामुनियों ने धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष इस चतुष्टय पर गहन-गम्भीर विचार-विमर्श एवं विश्लेषण प्रस्तुत किया है। परन्तु धर्म और मोक्ष को मुख्यता देकर ही उनके उपदेश हुए और होते हैं। क्योंकि उनका दृष्टिकोण सदैव भौतिकता से परे आध्यात्मिकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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