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________________ १५० संदेश मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International मालवरत्न गुरुदेव श्री कस्तूरचंदजी महाराज कोटि कोटि वन्दन करूँ, श्री सद्गुरु चरणार । श्रद्धा भक्ति प्रेम के, धरू पुष्प उपहार ॥ पद पंकज की सुरभि से, सुरभित हुआ समीर । श्री चरणन के स्पर्श से, पावन गंगा नीर ॥ मृदुपद नख की ज्योति से, दस दिशि होत प्रकाश । पाद - पद्म के स्मरण से, होता भव भय नाश || चरण रेणु धरि सीस पर, उघड़त नयन विवेक । संशय भ्रम बहि जात है, सब में सूझत एक ॥ सकल गुणों के धाम हैं, महिमा अगम अपार । विधि हरि हर अरु शेष भी, पाय सके नहीं पार ॥ टेक | एक ॥। - शिरोमणि चंद्र जैन दीनबन्धु करुणायंतन, भक्त जनों की प्रेम भक्ति अवतार हैं, संत शिरोमणि जैनागमतत्त्वविशारद प्रवर्तक श्री हीरालालजी महाराज शशि शीतल श्री चरण हैं, श्री नख ज्योति अपार । दण्डवत वन्दन मैं करू, भक्तन के आधार ॥ 1 सद्गुरु चरण स्पर्श से होता हर्ष अपार । नाम मंत्र की नाव से, करते हैं भव पार ।। विश्वरूप गुरुदेव जी, निराकार अमित है महिमा आपकी, अगम अनंत अति कोमल मृदुगात है, महाबाहु शुचि भाल । आयत वक्ष सुरम्य है, उन्नत नयन विशाल || नमस्कार ते मिटत हैं, रोग-शोक त्रय ताप | मानस निर्मल होत है, उर में रहत न पाप ॥ पुनि पुनि वन्दो गुरुचरण, जो है अग जग टेक | जाके सुमिरन से करें, आवागमन अनेक ॥ - शिरोमणि चंद्र जैन For Private & Personal Use Only साकार । अपार ॥ www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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