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________________ १३२ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ प्रातः स्मरणीयश्री मज्जैनाचार्य स्वर्गीय पूज्य श्री खूबचन्दजी महाराज के गुरुभ्राता स्व० पं० मुनि श्री लक्ष्मीचन्द्र जी महाराज के सुशिष्य श्रमण संघीय जैनागमतत्त्वविशारद पं० मुनि श्री हीरालालजी महाराज के चरण-कमलों में अभिनन्दन पत्र गुरुवर्य ! आपको अनेकशः धन्यवाद है कि आपने उन विहार करते हुए पं० मुनिश्री लाभचन्दजी महाराज, मुनिश्री दीपचन्दजी महाराज, मुनिश्री मन्नालालजी महाराज तथा तपस्वी मुनि श्री बसन्तलाल जी महाराज के साथ बैंगलोर नगर को पावन किया और मोरचरी व सपोंग्स रोड श्रावक संघ की विनती को स्वीकार कर चातुर्मास के लिए पधारे। वास्तव में देखा जाय तो जैन मुनियों का मार्ग बड़ा ही कंटकाकीर्ण है। विहारकाल में सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि अनेक भीषण परीषहों को सहनशीलता की मूर्ति बनकर सहन करना आप जैसे वीरों का ही कार्य है। कायर पुरुष इन परीषहों को सहन करने में असमर्थ ही होते हैं। आप वीरों ने उन परीषहों को फूलों के सदृश मानकर सहन किया है। एतदर्थ आपको कोटिशः धन्यवाद है। इस चातुर्मास काल में आपके यहाँ विराजने से बेंगलोर जैन समाज पर अत्यन्त उपकार हुआ है। मोरचरी तथा सपींग्स रोड़ वाले श्रावकों को तो सेवा करने का यह प्रथम सुअवसर ही प्राप्त हुआ था। आपके चातुर्मास करने से यहाँ श्रावक संघ के हृदय में अकथनीय धर्म जागृति हुई। आपके धर्मोपदेश से प्रेरित होकर जो सपींग्स रोड स्थित बंगला ५१०००) हजार रुपये में धर्म प्रवृत्ति करने के लिए लिया गया है, यह आपश्री के सफल चातुर्मास की अमर यादगार दिलाता रहेगा । हम सबका हृदय इस महान् कमी की पूर्ति में गद्-गद् हो रहा है। आप श्री के प्रवचन बड़े ही ओजस्वी सारगर्भित एवं सोये हुए हृदय में जागृति पैदा करने वाले होते हैं। आपकी जादूभरी वाणी को सुन-सुन कर कई भाई श्रद्धालु श्रावक बने हैं। आपकी वर्चस्व शक्ति अद्भुत रंग लाने वाली है। आपके बिना प्रेरणा दिए ही उपदेश मात्र से यहाँ के भाई-बहनों में बड़ी-बड़ी तपस्याएं एवं प्रत्याख्यान हुए हैं। आप जैसे विरले ही महान् संतों में इस प्रकार की वाक्पटुता पाई जाती है । टूटे हुए हृदयों में असीम प्रेम पैदा करा देना आपको खूब आता है। यदि हम आपको लोकप्रिय धर्म नेता से भी सम्बोधित करें तब भी अतिशयोक्ति न होगी । आप वास्तव में सद्धर्म प्रचारक सन्त हैं। आपकी हंसमुख मुद्रा से सदैव फूल बरसते रहते हैं। आपके सौम्य दीदार की अलौकिक छटा प्रशंसनीय है। दर्शन करने वाले भव्य प्राणियों को आपका मुखारविंद अतीव आनन्द का प्रतीक है। प्रत्येक नर-नारी दर्शन लाभ कर अपने जीवन को धन्य-धन्य मानते हैं। आपश्री के गुणों का वर्णन करना हमारे लिए सूर्य के सामने दीपक दिखाने के सदृश है। गुरुदेव ! हमारे पास वह शाब्दिक चमत्कार नहीं जिससे हम आपके अनेक गुणों का बखान कर सकें । तदपि भक्ति से प्रेरित होकर जो यकिंचित गुण-पुष्प आपश्री के चरणों में समर्पित किये हैं उन्हें आप बहुलता में मानकर स्वीकार करें। हृदय सम्राट् ! आपको विदाई देते हुए हम श्रावकों के हृदय दुःख से व्यथित हो रहे हैं। परन्तु संयोग के पश्चात् वियोग भी अवश्यम्भावी है। अतएव न चाहते हुए भी हम आपको विदाई दे रहे हैं। हमारी आपसे करबद्ध प्रार्थना है कि संतप्त पिपासुओं को पुनः दर्शन लाभ कराकर अपने अपूर्व प्रेम का परिचय देते रहिए। इस चातुर्मासकाल में हमारी तरफ से जो भी अविनय आशातना हुई हो, उसे हृदय में स्थान नहीं देते हुए क्षमा करेंगे, ऐसी आशा करते हैं। अन्त में शासनदेव से कर जोड़ प्रार्थना है कि गुरुदेव चिरकाल पर्यंत ग्रामानुग्राम विचरण करते हए, जैनधर्म का अधिक से अधिक प्रचार कर सकें ऐसी शक्ति प्रदान करें। हम हैं आपके श्रावकगण चातुर्मास सं० २०१६ श्री वर्धमान स्था० जैन श्रावक गण स्थान-मोरचरी सपींग्स रोड, बेंगलोर १ मोरचरी सपींग्स रोड, बेंगलोर १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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