SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रद्धार्चन १२७ आगमतत्त्वविशारद महोपकारी सरलमना श्रद्धेय प्रवर्तक श्री हीरालालजी महाराज उन्हीं महकते-दमकते महामनस्वियों की श्रेणी में हैं । ओसवाल दुगड़ परिवार में जन्म लेने के बावजूद भी आप उस संकीर्ण परिधि में चिपक कर बैठे नहीं रहे अपितु कमलवत् अनाक्सत योग में रहे । आचार्यश्री खूबचन्दजी महाराज द्वारा सद्बोध पाकर आपकी अन्तरात्मा वैराग्य रस में तरबतर हो गयी । इतना ही नहीं तीर्थस्वरूप अपने पिता श्री लक्ष्मीचन्द जी दुगड़ को भी सामयिक दिशा निर्देश देते हुए आपने कहा था-'कहाँ तक संसारी प्रवृत्तियों में आप रचे-पचे रहेंगे? इसलिए आप और मैं, दोनों आचार्य भगवंत के चरण-कमलों में दीक्षा अंगीकर करके आत्म-कल्याण करें।' वैसा ही हुआ। दीक्षित होने के पश्चात् आगमों का आपने तलस्पर्शी ज्ञान किया। भारत के लगभग सभी प्रान्तों में आपका भ्रमण हुआ है। जहाँ-जहाँ आपका पदार्पण हुआ है वहाँ-वहाँ अहिंसा धर्म का अच्छा प्रचार हुआ है। प्रकृति से आप महान् हैं। सदा मनमोहक मुखड़े पर मुस्काने अठखेलियाँ करती हैं। इन दिनों आपश्री श्रमण संघ के प्रवर्तक पद पर आसीन हैं । इस मंगल महोत्सव के संदर्भ में हार्दिक अभिनन्दन करते हुए मुझे अपार हर्षानुभूति हो रही है। पथ-प्रदर्शक-प्रवर्तक श्री हीरालालजी महाराज प्रिय सुशिष्य प्रवर्तक मुनि श्री उदयचन्दजी महाराज 'जन सिद्धान्ताचार्य' वही साधक सौरभ से महकता है जो अपनी सौरभ से संसार को मकरंद-सुगंधित करता है । कहा भी है-सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय ! प्रवर्तक पं० श्री हीरालालजी महाराज साहब इसी कोटि के साधक माने जाते हैं जो सदैव ज्ञानाराधना करते हुए दिखाई देते हैं। किसी समय आप शास्त्रादि पढ़ते हुए मिलेंगे या कभी पूज्य श्री खूबचन्द जी महाराज साहब अथवा जैन दिवाकर जी महाराज या विनयचन्दजी कवि आदि महाविभूतियों के त्याग-वैराग्य से छलछलाते हुए चरित्र एवं भजनादि गाते दृष्टिगत होंगे। आप कभी निष्क्रिय नहीं रहते, स्फूर्ति एवं ताजगी जवानों से भी विशेष है। आपके जीवन में सक्रियता-कुछ न कुछ करते रहने की धुन सी है । आप जैनागमतत्त्वविशारद के रूप में प्रसिद्ध है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने आचारांग सूत्र में कहा भी है पासिय आउरे पाणे अप्पमत्तो परिव्वए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy