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________________ संस्मरणों के प्रकाश में ११५ निषेध पर भाषण हुआ। जिसको सारी सभा ने मान लिया और महाराज महात्माजी को कोटिशः धन्यवाद दिया। सूर्यकुंड सहीबरकट्ठा -मास्टर बुधनसिंह गहलोत जिला-हजारीबाग प्रेमचन्द सिंह गौरहर मिथ्या मान्यता का पर्दाफाश किया रावलपिंडी (पंजाब) के आस-पास के क्षेत्रों में धर्म प्रभावना करके एकदा प्रवर्तकश्री हीरालालजी महाराज अपने साथी मुनियों के साथ विहार करते हुए 'गुजरखान' शहर में पधारे। यहाँ अनेकों जैनेतर जिज्ञासु प्रवर्तकश्री के सान्निध्य में उपस्थित होकर प्रश्न पूछ बैठे __ "हमने सुना है कि जैनधर्म ईश्वर को सृष्टिकर्ता नहीं मानता है। तो बताइये कि इस ब्रह्माण्ड का बनाने वाला कौन है ? क्या इतनी विराट् सृष्टि ऐसे ही पैदा हो गई ? संचालक कोई है कि नहीं ? हम सम्यक् समाधान चाहते हैं।" __ समाधान के तौर पर प्रवर्तकश्री ने फरमाया-सुनिये ! जैन-परम्परा आज से नहीं, अनादि काल से ईश्वर को सष्टिकर्ता नहीं मानती है। कारण यह है कि ईश्वर को कर्ता मान लेने पर देहधारी बेचारा सदियों क्या, एक लम्बे काल तक ईश्वरीय पराधीनता के घेरे में दम तोड़ता रहेगा। देहधारी के भाग्य का निर्माता ईश्वर रहा, वह इच्छानुसार प्राणी के भाग्य को बनाता बिगाड़ता-रहेगा। फिर मानव की दुष्कर साधना-आराधना व्यर्थ ही रही। क्योंकि प्राणी पहले ही ईश्वर के हाथों का खिलौना बन चुका है। ऐसा मानना निरा भ्रम एवं कपोल-कल्पित एक मान्यता मात्र है। प्राणी स्वयं अपने भाग्य का सृष्टा और विधाता है। ईश्वर केवल मार्गदर्शक होता है, न कि प्राणी के भाग्य को बनाने वाला। सृष्टि अनादिकाल से गतिशील है । न किसी ने प्रकृति का सर्जन किया और न किसी ने विनाश । समयानुसार सहज-भाव में कुछ अंशों में विकास और विनाश के दृश्य अवश्य उपस्थित होते हैं। थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाय कि ईश्वर ने सृष्टि बनाई है तो कहाँ बैठकर बनाई ? आधार के बिना आधेय टिक नहीं सकता है। केवल ईश्वरीय शुभसंकल्प मात्र से सृष्टि का प्रादुर्भाव हो गया-ऐसा मानना भी सदोष है। क्योंकि सभी देख रहे हैं-संसार में एक चोर, एक साहूकार; एक दुखी, एक सुखी और एक अमीर, एक गरीब-इतनी विषमता-विचित्रता क्यों ? क्या सृष्टिकर्ता भगवान समदृष्टि नहीं था? अगर समदृष्टि होता तो सृष्टि को समान बनाता और विषमदृष्टि वाला मानते हैं तो वह कभी भगवान नहीं हो सकता। इसलिए सभी प्राणी कर्मानुसार फल पाते हैं। इसमें ईश्वरीय शक्ति का कोई हस्तक्षेप नहीं है । चर्चा काफी लम्बी हो गई है। क्या कुछ समझ में आया? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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