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________________ ११२ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ गंतव्य स्थान पर पहुँचे। एक जीर्ण-शीर्ण राम मंदिर में मुनिवृन्द विराज गये। ईर्यापथिक क्रिया का चिन्तन कर सभी मुनि निश्चित होकर बैठ गये। पारस्परिक संत कानाफूसी करने लगे-बड़े महाराज कभी-कभी बड़ी जल्दबाजी कर देते हैं, इस टूटे-फूटे गाँव में आहार-पानी कौन देगा? सारा दिन यूं ही बिताना पड़ेगा और संध्या को फिर दो-तीन मील का विहार करना है । खैर ! स्वयं महाराजश्री पात्र लेकर घूमते-घामते एक गली में पहुंचे। वहां एक विप्रबन्धु अन्य के साथ बातचीत कर रहा था। महाराजश्री को आते देखकर, नमस्कार कर बोला-'कल मेरे यहाँ जाति का भोजन था। आपकी कृपा से काफी पूड़ियाँ और मिष्ठान्न बच गया है । मेरा सौभाग्य है कि आप भी ठीक समय पर यहां पधार गये । दोनों समय को पूरा भोजन मेरे यहाँ से ही ले पधारें। बस, अचार-पूड़ियाँ और पकवान से पूरे पात्र भर दिये। __ महाराजश्री आहार लेकर स्थान तक पहुँच कर बोले-आत्म-विश्वास कितनी बड़ी चीज है। साधक जीवन का आत्म-विश्वास महान् सम्बल है । आहार-पानी कर सभी मुनियों ने आगे कदम बढ़ाये । उचित समाधान ___ एकदा प्रवर्तकप्रवर श्री हीरालालजी महाराज अपने शिष्य परिवार के साथ छोटी-सादडी को पावन कर नीमच छावनी पधारे। धार्मिक प्रवृत्तियाँ चालू होना स्वाभाविक था। कुछ इतर सामाजिक तत्त्व एकत्रित होकर महाराजश्री के सान्निध्य में पहुँचे । बोले- "ऐसे जैन साधुओं के व्याख्यान बड़े रोचक होते हैं। पर हमने सुना है कि-आप लोग स्नान नहीं करते हैं । मैले-कुचेले-वासी रहते हैं। क्या कारण है ? हम जानना चाहते हैं ?" प्रत्युत्तर के तौर पर प्रवर्तक श्री ने फरमाया कि-"बात सत्य है। हम लोग अर्थात् जैन साधु किसी नदी-नाले-सरोवर, कुए, बावड़ी पर जाकर कच्चे जल से स्नान नहीं करते हैं। फिर भी आप अपने शरीर की ओर देखें और मेरे शरीर की ओर भी। जबकि आप लोग हमेशा बाल्टियाँ बन्द पानी से नहाते होंगे। मतलब यह कि शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र है। गंगा और यमुना की जलधाराओं से सैकड़ों बार इसे स्नान कराने पर भी यह पवित्र नहीं होने का। जिसका निर्माण ही अपवित्र पदार्थों से हुआ है वह पवित्र कैसे होगा? बल्कि पवित्र वस्तु को भी यह अपवित्र बना देता है । हाँ तो, जैन श्रमण-श्रमणी वर्ग का प्रमुख लक्ष्य देह-शुद्धि नहीं है, आत्म-शुद्धि है। अंतरात्मा की शुद्धि ही सिद्धि को प्राप्त करवाती है। आत्मा की शुद्धि ब्रह्मचर्य रूपी सरोवर में स्नान करने में होती है । जैन साधु पूर्णरूपेण ब्रह्मचारी होते हैं। इसी दिव्य शक्ति के कारण ही हमारा शरीर सदैव पवित्र और ताजगी पूर्ण रहता है। प्रश्नकर्ता-माफ कीजिएगा। हमारे कुछ मित्रों ने हमें कहा कि जनसाधु For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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