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________________ । वचन और विचार १०६ उसी विषवृक्ष के जहरीले फल लगते हैं तो उन गुरुओं को भी समाज में अपमानित होकर अपने किए पर पश्चात्ताप करना पड़ता है। अहिंसा वीरत्व का प्रतीक है देखो ! आज तक अहिंसा भगवती ने संसार के प्राणीमात्र की रक्षा की है। अहिंसा वीरों का शस्त्र है, न कि कायरों का। कायर पुरुष अहिंसा को धारण ही नहीं कर सकता। यह भगवती अहिंसा प्राणियों को दुर्गति से निकाल कर सद्गति में ले जाती है। इसका पालन करते हुए प्रत्येक आत्मा इस लोक तथा परलोक में सुखी बन जाती है । तो अहिंसा दुःख से उन्मुक्त करने वाली है, न कि दुःख के सागर में डालने वाली और जो कुछ प्राणियों को संसार में दु:ख की प्राप्ति है, वह केवल पाप के कारण ही होती है । मनुष्य जैसे-जैसे कर्म करता है उसी के अनुसार उसे सुख या दुःख की प्राप्ति होती है तो अहिंसा ने मनुष्य को कायर नहीं बनाया किन्तु उसके पाप ने ही उसको बुजदिल बना दिया है । और जो तुम इस प्रकार कुतर्क यहाँ करते हो तो यह तर्क यहाँ तो चल जायगा, परन्तु जब तुम यहाँ से मरकर नरक में जाकर उत्पन्न होओगे और नेरिये के रूप में जब तुम अपने पाप-कर्मों का फल भोगने के लिए वहाँ के परमाधर्मी देवों के सामने उपस्थित होओगे तब तुम्हारा एक भी तर्क नहीं चलने वाला है। इसीलिए कुतर्क में अपना और दूसरों का समय बरबाद नहीं करते हुए मानव को अच्छी बात में ही तर्क उपस्थित करना चाहिए। कमलवत् निर्लेप समकितधारी आत्मा का यही लक्षण है कि वह अपने कुटुम्ब की प्रतिपालना करते हुए भी अन्तर्हृदय से सबसे पृथक् रहता है। जैसे कोई धायमाता किसी सद्गृहस्थ के बच्चे को अपने स्तन का पान कराती हुई और सब प्रकार से लाड़ लड़ाती हुई भी मन में यही विचार रखती है कि यह पुत्र मेरा नहीं है और न मैं इसकी माता हूँ तो ठीक इसी प्रकार सम्यक्त्वी जीव भी संसार के सारे कर्तव्य करते हुए भी यही विचार करता है कि मैं तो सिर्फ अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ। न तो ये पदार्थ मेरे हैं और न ही मैं इनका हूँ। इस प्रकार वह वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझकर अपने जीवन को विशुद्ध रूप में व्यतीत करता है। आत्म-विजय की ओर बढ़ें एक मनुष्य ऐसा है जो अपनी आत्मा के शत्रुओं के साथ युद्ध करता है और उसका यह आध्यात्मिक युद्ध बाह्य युद्ध से कहीं अधिक बलशाली है। बाह्य शत्रुओं पर प्राप्त की जाने वाली विजय अस्थायी है। जब उससे भी प्रबल युद्ध सामने आ जाता है तो उसकी विजय पराजय के रूप में परिणत हो जाती है। ऐसा न हुआ तो भी उस विजेता को एक दिन मरण-शरण होना पड़ता है। उस समय प्राप्त समस्त साम्राज्य और वैभव को ही त्याग कर उसे परलोक के मार्ग पर जाना पड़ता है। किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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