SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवन दर्शन ७ साहित्यिक क्षेत्र में भी आपकी अभिरुचि कम नहीं है। मानव-समाज में अधिकाधिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार हो, और भूली-भटकी अनभिज्ञ जनता सुगमतापूर्वक सत्साहित्य को पा सके, पढ़ सके एतदर्थ हीरक प्रवचन के भाग एक से दस, हीरक-हार दृष्टान्त भाग एक-दो-तीन, सहस्र दोहावली, हीरक भजनावली, मुनि विहार, बंग विहार एवं खूब कवितावली इस प्रकार आपके संकेतों पर "दिवाकर दिव्य ज्योति" कार्यालय ब्यावर संस्था से उक्त साहित्य प्रकाशित हो चुका है। पुस्तकों की भाषा काफी सरल-सुबोध होने के कारण बहुत से बुद्धिजीवी लाभान्वित हुए हैं। इस प्रकार आपने साहित्य भण्डार की श्लाघनीय सेवा प्रस्तुत की है। आप कभी-कभी अपने व्याख्यान में फरमाया करते हैं वहाँ अंधकार है, जहां आदित्य नहीं। वह मुर्दा समाज है, जिसमें साहित्य नहीं॥ साफ कहना, सुखी रहना (स्पष्ट वक्ता के रूप) 'साफ कहना, सुखी रहना' यह सिद्धान्त प्रत्येक व्यक्ति को पसन्द नहीं आता है। क्योंकि-सत्य हमेशा महँगा एवं कटु होता है। जैसा कि "अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता-श्रोता च दुर्लभः" अर्थात् साफ-स्पष्ट कहने वाला वक्ता दुनिया की आँखों में खटकता है। दुनिया उसे पचा नहीं पाती है। परन्तु निष्पक्ष विचारों की तुला पर कसा जाय तो स्पष्टतः पता चलेगा कि “साफ-साफ कहने वाला दुश्मन नहीं, अपितु परम हितैषी के रूप में खरा उतरा है।" ___चरित्रनायकजी का स्वभाव सदैव साफ-स्पष्ट कहने का पक्षी रहा है। साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका या इतर कोई नर-नारी क्यों न हो? वे यदि अनुचित राह पर अग्रसर हो रहे हों या दुराग्रह-कदाग्रह-क्लेश के दल-दल में अपने को डुबो रहे हों तो फिर आप उन्हें खरी-खरी सुनाने में हिचकिचाते नहीं हैं। वैसे आप सागर-सम गंभीर और हिमाचल-सम धीर-वीर हैं। आपकी यह स्पष्टोक्ति है-किसी की भी पीठ-पीछे निन्दा-बुराई नहीं करनी चाहिए। जिसको कहना हो मुँह के सामने उसे कह दिया जाय-भले उसे बुरा लगे या अच्छा । जो वक्ता व्यर्थ की लीपा-पोती करते हैं, अगले व्यक्ति को साफ-साफ नहीं जताते हैं, हमेशा मीठी-मीठी बातें बनाकर जो अपना स्वार्थ पूरा करते हैं, ऐसे कुटिल-मायावी वक्ताओं को आप ठीक नहीं मानते हैं। ___ इन दिनों आप श्रमणसंघ के प्रवर्तक पद पर आसीन हैं। प्रमुख-प्रमुख प्रवर्तकों में से आपका नाम भी उल्लेखनीय है । सदैव आपकी अन्तरात्मा यह चाहती है कि श्रमणसंघ सुदृढ़ बने । घर-घर में श्रमणसंघ की जय-ध्वनियाँ गूंजें एवं स्नेहसंगठन-समर्पण का अधिकाधिक विस्तार हो। जन-जीवन रत्नत्रय से आलोकित हो । आपके उदात्त विचारों ने हमेशा कड़ी से कड़ी जोड़ी है । टूटे हुए दो दिलों को मिलाया है। यही कारण है कि सभी प्रान्तों के नर-नारी आज भी आपके प्रिय उपदेशों को याद करते हुए नत-मस्तक हो जाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy