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________________ जीवन दर्शन ६१ चाहना रही है । हमारे चरित्रनायक (प्रवर्तक हीरालालजी महाराज) द्वारा की जाने वाली सेवा-भक्ति से प्रभावित होकर भावी आचार्य देव 'हीरा' कहकर सीधी-सादी भाषा में पुकारा करते थे। इससे विदित होता है कि महामनस्वी पूज्यप्रवर की आप पर कितनी कृपा थी? वस्तुतः किसी खास कारण के अतिरिक्त आपको अपनी सेवा में ही रखते थे । ऐसे महामहिम निर्ग्रन्थ गुरु के सान्निध्य में रहने से दिन दुगुनी-रात चौगुनी प्रगति अविराम गति से होती रही। पूरा विश्वास किया जाता है कि आपके जीवन विकास में अधिक श्रेय श्रद्धेय पंडितप्रवर आदर्शत्यागी पूज्य श्री खूबचन्दजी महाराज को है । जिनकी स्फुरणा एवं चेतना चरित्रनायक को प्रतिपल-प्रतिक्षण रत्नत्रय की अभिवृद्धि के लिए प्रेरित एवं उत्साही बनाती रही है। ___'आणाए धम्मो, आणाए तवों' शास्त्रीय नियमानुसार हमारे चरित्रनायक श्री हीरालालजी महाराज सदैव अपने संघ के सुयोग्य अधिपति पं० श्री खूबचन्द जी महाराज के आदेशों को मनसा-वाचा-कर्मणा कार्यान्वित करने में तत्पर रहे हैं। सदैव अनुशासन की परिपालना में सुखानुभूति करते रहे हैं । यही कारण है कि आज भी हम देखते हैं कि आपका यशस्वी जीवन उतना ही व्यवस्थित-मर्यादित एवं निस्पृह वृत्तिइस त्रिवेणी संगम का सफल-सबल परिचायक है। आत्म-कल्याण के साथ-साथ धर्म-प्रचार भी मुनि-महासती वृन्द का सर्वोपरि लक्ष्य रहा है। धर्म-संदेश को घर-घर और गाँव-गाँव तक पहुँचाना कोई सहज कार्य नहीं है । यद्यपि प्रचार करते समय जैन साधकवृद को काफी परीषहों का सामना करना पड़ता है। आहार-पानी-आवास की कहीं सुविधा मिलती और कहीं नहीं। फिर भी अनुकूल-प्रतिकूलता में जैन श्रमण-श्रमणी वर्ग कभी भी पीछे नहीं हटे हैं । अपने दैहिक सुख-सुविधा को गौण समझते हुए जिन-शासन सेवा व जन-सेवा को मुख्यता प्रदान करते हुए आगे बढ़ते जाते हैं । जैसा कि आगम में भगवान महावीर ने कहा है लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा। समो निंदापसंसासु, समो माणावमाणओ॥ (उत्तराध्ययन १९६१) __ जो साधक लाभ-अलाभ, सुख-दुख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा और मान-अपमान में समभाव रखता है, वही वस्तुत: मुनि है। ऐसे साधक जन-जन के श्रद्धा के केन्द्र होते हैं। चरित्रनायक श्री का जीवन भी धर्म-प्रचार कार्यों में अग्रगण्य रहा है। इसी विराट् भावना से प्रेरित होकर आपने सुदूर प्रान्तों में अर्थात् भारत के इस छोर से उस छोर तक विहार द्वारा सद्धर्म प्रचार का ध्वज फहराया है। यह जिन-शासन के लिए महत्त्वपूर्ण गौरव की बात है। आपके प्रभावशाली प्रवचनों के प्रभाव से कई जैन-जैनेतर सत्पथ के पथिक बने, कई गृहत्यागी और कई श्रमणोपासक की श्रेणी में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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