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________________ जीवन दर्शन ८६ शास्त्रीय अध्ययन दीक्षोपरांत दादागुरुजी श्री नन्दलालजी महाराज साहब ने नव दीक्षित मुनि श्री हीरालालजी महाराज की प्रखर बुद्धि को एवं शास्त्रीय अभ्यास की स्वत: लगन को देखकर अभ्यासार्थ भावी आचार्य श्री खूबचन्दजी महाराज की सेवा में रहने का आदेश फरमाया। पंडितप्रवर श्री खूबचन्दजी महाराज का सुयोग मिलने पर तीव्र गति से आप (श्री हीरालालजी महाराज) का विकास होने लगा। साधु का परिधान पहन लेने मात्र से ही नव दीक्षित मुनि संतुष्ट होकर बैठे नहीं रहे, ज्ञानार्जन के लिए पूरे परिश्रम के साथ जुट गये। अमूल्य इन क्षणों में अब मुझे ज्ञान-दर्शन-चारित्र की अभिवृद्धि अच्छे ढंग से करनी है ताकि-'पुनरपि जननं पुनरपि मरणं' का यह चिरकालीय सिलसिला अवरुद्ध हो जाय। कहीं प्राप्त हुआ समय यू ही न बीत जाय । जैसे किसी को खजाना बटोरने को कह दिया हो, उसी प्रकार विनय-विवेक एवं भक्तिपूर्वक गुरु प्रदत्त ज्ञान-निधि सम्पादन करने में लगे रहे। गुरु भगवंत भी निम्न गुणों से युक्त साधक को ही ज्ञानामत का पान करवाते हैं अह अट्ठहिं ठाणेहि सिक्खासीले त्ति वुच्चई । अहस्सिरे सया दंते न य मम्ममुदाहरे ।। नासीले न विसीले न सिया अइलोलुए। अकोहणे सच्चरए सिक्खासीले त्ति वुच्चइ ।। (उत्तराध्ययन, १११४-५) जो साधक अधिक नहीं हँसने वाला, इन्द्रियों का सदैव दमन करने वाला, मर्मकारी वाणी का प्रयोग न करने वाला, शुद्धाचारी, विशेष लोलुपतारहित, मन्द-कषायी और सत्यानुरागी है, वही शिक्षा के योग्य होता है। उक्त योग्यता हमारे चरित्रनायक के साधनामय जीवन में थी और है। गुरुदेव सचमुच ही ऐसे विनय-विवेकसम्पन्न अंतेवासी के लिए अपना विराट् ज्ञान-भण्डार बिना संकोच किए खोलकर उस मुमुक्षु के सामने रख देते हैं। गुरुप्रवर का अमूल्य ज्ञान कोष ऐसे विनीत, गुण-ग्राही शिष्यों के लिए सर्वदा सुरक्षित रहता है। कहा भी है-“संपइ विणीयस्स"। ___ भावी आचार्यप्रवर श्री खूबचंदजी महाराज की महती कृपा से दीक्षोपरांत आपने जैन वाङमय तथा जैनदर्शन सम्बन्धित अन्य साहित्य का तलस्पर्शी अध्ययन प्रारम्भ किया। स्वयं पंडितप्रवर श्रद्धेय श्री खूबचन्दजी महाराज आपको (हीरालालजी महाराज) पास में बिठाकर अति प्रेम-पूर्वक तात्त्विक ज्ञान सिखाते थे। त्वरित गति से दशवैकालिकसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, आचारांगसूत्र, सुख-विपाकसूत्र, नंदीसूत्र, एवं प्राकृत व्याकरण कंठस्थ करवाई और हिन्दी-साहित्य में भी उच्चस्तरीय योग्यता प्राप्त की। उसके बाद भी अध्ययन चालू रहा। श्रीमद्भगवतीसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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