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________________ जीवन दर्शन ८५ हीरालाल जी महाराज" के नाम से पहचानते हैं । सहस्रों-लाखों आत्माएँ जिनके प्रवचनपीयूष का पान कर जीवन-विकास की पवित्र प्रेरणा पा चुकी हैं। पारिवारिक परिचय मान्यवर लक्ष्मीचन्दजी दुगड़ की धर्मपत्नी सहधर्मानुगामिनी हगाम कुँवर बाई की कमनीय कुक्षि से वि० सं० १९६४ पौष शुक्ला प्रतिपदा शनिवार की मंगल बेला में इसी मंदसौर की पावन भूमि पर हमारे चरित्रनायक श्री का जन्म हुआ था। फलतः सारा दुगड़ परिवार हर्षविभोर हो उठा एवं दुगड़ भवन का कोना-कोना मंगल गान से मुखरित भी। आपके पितामह मान्यवर ताराचन्दजी दुगड़ मंदसौर के प्रमुख एवं प्रतिष्ठित व्यापारियों में से एक थे। श्रेष्ठी श्री लक्ष्मीचन्दजी का दाम्पत्य जीवन बहुत ही सात्त्विक-सरल-सुखी एवं धर्मनिष्ठ था। यथावसर सामायिक करना, संत मुनियों के व्याख्यान सुनना एवं शक्त्यनुसार तपाराधना में रत रहना, उन दोनों पुण्यात्माओं को इष्ट था जैसे होंगे सघन विटप, तो छाया भी वैसी होगी। जैसे होंगे मात-पिता तो, संतति भी वैसी होगी। यह निर्विवाद सत्य बात है कि संतान पर माता-पिता के संस्कारों का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। जिसमें भी माता की दिनचर्या की छाप गर्भस्थ आत्मा पर अतिशीघ्र पड़ती है। अतएव माता के सहवास को सर्वप्रथम पाठशाला की उपमा से उपमित किया है । नवजात शिशु हीरालाल पर भी माता-पिता के संस्कारों का गहरा प्रभाव पड़ा। वस्तुतः बालक आरम्भ से ही सरल-सौम्य एवं मेधावी दृष्टिगोचर होने लगा। परिस्थितियों के बीच जीवन मानव-जीवन के निर्माण में परिस्थितियों का बहुत योगदान रहता है। सुख किंवा दुखात्मक घटनाएँ व्यक्ति के जीवन-प्रवाह को बदल देती हैं। पथिक को उत्थान या पतन के किसी भी मार्ग की ओर ले जाती हैं। विषम परिस्थितियों में भी जीवन को समुन्नत करना तथा अपना मार्ग निश्चित कर लेना होनहार सपूतों का ही काम है। अन्यथा अधिकांश नर-नारी पथभ्रष्ट होकर अध:पतन के गहरे गर्त में जा गिरते हैं । बालक हीरालाल के जीवनोत्थान में भी परिस्थितियों का काफी सहयोग रहा। वि० सं० १९७१ के वर्ष में अर्थात् सात वर्ष की लघुवय में ही माता का स्नेहमय हाथ सदा-सर्वदा के लिए उठ जाने से और बड़ी बहन कंचन व छोटे भाई पन्नालाल का देहावसान होने से हीरालाल का मृदु-मन अत्यधिक द्रवित हो उठा। उक्त परिजनों की दुर्घटनाएँ लघु बालक के मन-मस्तिष्क में एक प्रश्न बन गईं। जीवन और मरण के प्रति एक जिज्ञासा जाग गई-"व्यक्ति मरता क्यों है और मरकर कहाँ जाता है ? इसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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