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________________ द्वितीय खण्ड : ६१ साथ पिताजी उनके निवास स्थान पर चले गये और जयपुर खानिया तत्त्व चर्चा के अन्त तक पिताजी वहीं रुके रहे । पाटनीजीके बहनोईने इस कार्य में अच्छा योगदान दिया । दूसरे दिन वे दोनों मिलकर खानियाजी चले गये । वहाँ भगवान्‌ के दर्शन करनेके बंशीधर जी, इन्दौर और स्व० श्री जोवंधरजी, इन्दौरसे मिले । वे वहाँ आ चुके थे । बताया कि यद्यपि चर्चा आजसे शुरू होनी थी, परन्तु स्व० श्री पं० मक्खनलालजीने विद्वान् नहीं आ सके हैं, इसलिए कलसे चर्चा प्रारम्भ की जाये । दूसरे दिन पुनः वे दोनों खानियाजी गये । उस दिन वहाँपर बहुतसे भाई आ गये थे । आ० श्री शिवसागरजी भी ससंघ वहाँ विराजमान थे । मंगलाचरण होनेके बाद उन्होंके समक्ष सर्वप्रथम पिताजीने खड़े होकर बतलाया कि "ब्र० लाडमलजीका जो पत्र मिला है उसके आधारसे हम चर्चा करनेके लिए आये हैं । ब्र० लाडमलजीने अपने पत्र में लिखा है कि श्री पं० मक्खनलालजीने चर्चा के लिए आपके नियम स्वीकार कर लिए हैं, इसलिए आप चचकेि लिए आयें ।" बाद स्व० श्री पं० ब्र० श्री लाडमलजीने कहा है कि आज सब इस पर स्व० श्री पं० मक्खनलालजी खड़े हो गये और बोले कि अपने पत्र में हमने कहाँ दी है ? तब पिताजीने ब्र० लाडमलजीसे कहा कि "आपने तो मुझे ऐसा ही लिखा है, हैं ?" यह सुनकर ब्र० लाडमलजी गये और श्री पं० मक्खनलालजीका वह पत्र उठा लाये पढ़कर सुनाया । नियमोंकी स्वीकृति फिर ये क्या कहते और उसे सभामें पत्र सुननेके बाद स्व० श्री पं० मक्खनलालजी बोले, "अनेकान्त है । अच्छा चलिये नियमोंको लिख लिया जाये ।" और इस प्रकार आसानीसे तत्त्वचचके नियम लिखे गये । इसके बाद मध्यस्थ किसे बनाया जाये यह प्रश्न सामने आया । पिताजी तुरन्त खड़े हुए और स्व ० श्री पं० चैनसुखदासजीका नाम प्रस्तावित कर दिया। यह सुनकर स्व० श्री० पं० इन्द्रलालजी शास्त्री बिगड़ पड़े और उल्टी सीधी बातें करने लगे । यह सब चलते हुए काफी समय हो गया था, इसलिए दूसरे दिनके लिए सभा स्थगित कर दी गई । दूसरे दिन पिताजी से पुनः पूछा गया कि मध्यस्थ किसे बनाना स्वीकार करेंगे । पिताजीने पुनः अपना निश्चय दुहरा दिया। इसके बाद दोनों पक्ष के विद्वानोंने मिलकर विचार-विमर्श किया और श्री पं० बंशीधरजी न्यायालंकारको मध्यस्थके रूपमें स्वीकार कर लिया। इसके बाद पं० मक्खनलालजीने छह प्रश्न उत्तर के लिए रखे और पं० पन्नालालजी साहित्याचार्यने उन्हें लिखकर पिताजीको दिया । किन्तु उस पर किसीके हस्ताक्षर न देखकर पिताजी ने उन्हें वापिस लौटा दिया । बादमें चर्चा होकर पं० भक्खनलालजीके हस्ताक्षर करा दिये गये और मध्यस्थके मार्फत पिताजीको सौंप दिये गये। साथ ही दोनों पक्ष के विद्वानोंने अपने-अपने प्रतिनिषि स्व० श्री पं० माणिकचन्दजी न्यायाचार्य स्व० श्री पं० मक्खनलालजी न्यायालंकार, स्व० श्री पं० जीवंधर जी न्यायतीर्थ, श्री पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य और श्री पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य गये । पिताजी की ओरसे श्री पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री तथा श्री पं० नेमीचन्दजी पाटनी प्रतिनिधि बने । Jain Education International अगले दिन पिताजीकी ओरसे श्री पं० जगन्मोहनलालजीने उत्तर पढ़े और दूसरे पक्षसे जो प्रश्न मिले उन्हें उत्तरके लिए स्वीकार कर लिया। इसके अगले दिन दूसरे पक्ष के विद्वानोंकी ओरसे यह कहा गया कि "पहले दिन जो छह प्रश्न उपस्थित किये गये थे वे किसी पक्षकी ओरसे न होकर साधारण थे । उसपर पं० फूलचन्द्र • जीके पक्षने जो लिखा है वह पूर्वपक्ष कहलाया और इस पक्षकी ओरसे जो उत्तर लिखा गया है, वह उत्तर पक्ष कहलाया ।" इस पर पिताजाने दूसरे पक्षसे यह कहा कि, "उन प्रश्नोंको देखा जाये कि वे साधारण हैं या For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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