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________________ द्वितीय खंण्ड : ५९ और अपने उद्गार प्रगट करते हुए कहा “अन्य दर्शनोंमें यह बातें नहीं पायी जातीं। हम कहेंगे कि इस धर्म का एक भी अनुयायी शेष रहे तो इस धर्मको जीवित रहना चाहिए। संसारको अलौकिकप्रकाश देनेवाला दर्शन यही है।" श्री पं० रतनचन्दजी जो कि पिताजीके विद्यार्थी थे, अकलतरामें पढ़ाते थे। उनकी यह तीव्र इच्छा थी कि पिताजी अकलतरासे प्रारम्भकर पूरे छत्तीसगढ़ प्रदेशमें भ्रमण करें। उनकी इच्छानुसार अकलतरा समाजके आमंत्रणको पिताजीने स्वीकार कर लिया और छत्तीसगढ़ प्रदेशके दौरेपर गये । इसी दौरेके सिलसिले में पिताजी राजिम नामक गाँव गये। वहाँ रात्रिके समय वे कुछ भाइयोंके साथ बातचीत कर रहे थे कि एक भाई आये और दूसरे दिनके लिए पिताजीका आमंत्रण कर गये । वह भाई दस्सा थे। वहाँ उपस्थित किसीने उनके यहाँ भोजनके लिए नहीं जाना चाहिए ऐसा नहीं कहा । अतएव पिताजीने उनके यहाँका निमंत्रण स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन भोजनके समय पिताजीको रोकनेका प्रयत्न किया गया । परन्तु रोकनेपर भी पिताजी भोजन करनेके लिए गये। कुछ भाइयोंने यह धमकी भी दी कि ऐसा करनेपर आपका चंदा नहीं हो सकेगा। पिताजीने उनको यही उत्तर दिया कि वे खाली हाथ वापिस चले जायेंगे परन्तु उस भाईका अपमान नहीं करेंगे। इतना ही नहीं किन्तु उस भाईको मन्दिर प्रवेशका अधिकार दिलाकर ही वहाँसे जायेंगे, ऐसा पिताजीने कहा । इस कार्य के लिए पिताजीको वहाँ दूसरी बार भी जाना पड़ा, परन्तु उस भाईको दर्शन पूजनका अधिकार दिलाकर ही पिताजी माने । इसके बाद सन् १. ५७-५८ में श्री कानजी स्वामीको लेकर समाजमें सोनगढ़की चर्चा चलने लगी। इसके लिए पू० वर्णीजीके सांनिध्यमें ईसरीमें एक विद्वत सम्मेलन भी हो लिया था। किन्तु उससे कुछ निष्कर्ष निकलता न देखकर पिताजीके मनमें इस विषयको लेकर एक स्वतन्त्र पुस्तक लिखनेका विचार आया। फलस्वरूप पिताजीने एक पस्तक लिखी और प्रमुख विद्वानोंको उसे दिखाया । इसपर इन विद्वानोंने सलाह दी कि विद्वत् परिषद्की ओरसे प्रमुख विद्वानोंको आमन्त्रित किया जाये और वहाँ इसे पढ़कर इसपर विचार विनिमय किया जाये । परिणामस्वरूप बीना समाजकी ओरसे विद्वत परिषद्के द्वारा विद्वानोंको आमन्त्रण भेजा गया। वहाँ इस पुस्तकपर संगोपांग चर्चा होकर, इस विषयमें एक प्रस्ताव पास किया। बादमें जैन तत्त्व-मीमांसाके नामसे, कलकत्ता मुमुक्षु मंडलकी सहायता मिलनेपर उसे प्रकाशित कर दिया गया। इसी समय जैन पत्रोंमें सोनगढ़ विरोधी चर्चा जोरोंसे चल पड़ी। स्व. श्री पं० मक्खनलालजीने अपने अखबार द्वारा चर्चाके लिए पिताजीको चैलेंज भी दिया। पिताजीके पास कोई साप्ताहिक या मासिक अखबार तो था नहीं, इसलिए उनके पत्रके उत्तरमें पिताजीने उनको पत्र लिखा कि "जिस धर्म और आगमको आप मानते हो उसी धर्म और आगमको हम भी मानते हैं, इसलिए हमारे और आपके बीचमें वाद-विवाद तो हो नहीं सकता, किन्तु शंका-समाधान अवश्य हो सकता है। यदि आप राजी हों तो आपके पत्र "जैन दर्शन" द्वारा ही चर्चा चलायी जा सकती है।" परन्तु उन्होंने पत्र द्वारा सूचना दी कि वे अपने अखबारके द्वारा पिताजी के विचारोंका प्रचार नहीं होने देंगे । और इस प्रकार यह चर्चा न हो सकी। इसके कुछ समय बाद ब्र० लाडमलजीका एक मुद्रित पत्र मिला। जिसमें दोनों पक्षके विद्वानोंको खानिया (जयपुर) में तत्त्वच के लिए आमंत्रित किया गया था। उस समय पिताजी कारंजा गुरुकुलमें ठहरे हुए थे। इसलिए ब्र० श्री पं० माणिकचन्दजी चवरेकी सलाहसे पिताजीने पत्रका उत्तर देते हुए चर्चाके कुछ नियम लिखकर भेजे और लिखा कि इन नियमोंके आधारपर वे चर्चाके लिए तैयार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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