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________________ पचम खण्ड : ६६७ आत्मानुशासन : एक परिशीलन डॉ० दरबारीलाल कोठिया, वाराणसी "आत्मानुशासन'' जैन वाङ्मयका एक ऐसा ग्रन्थ-रत्न है, जिसे समग्रभावसे जीवनमें उतार लेने पर व्यक्ति स्वर्णके समान निर्मल एवं आदर्श बन सकता है। यह 'षट्खण्डागम' को धवला और कषायपाहुड' की जयधवला टीकाओंके कर्ता आचार्य वीरसेनके प्रतिभाशाली प्रधान शिष्य आचार्य जिनसेनके प्रज्ञावान विनीत शिष्य भदन्त गुणभद्राचार्यको श्रेष्ठतम कृति है। धर्म, नीति और अध्यात्म इन तीनोंका इसमें प्रसाद गुण युक्त संस्कृत-भाषामें पद्य शैलीमें प्रतिपादन किया गया है। इसपर एक संस्कृत-टीका है जो प्रभाचन्द्रकर्तक है । ये प्रभाचन्द्र कौन है ? इस विषय में विद्वानोंमें मतभेद है । कुछ तो इन प्रभाचन्द्र को प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता तार्किक प्रभाचन्द्र बतलाते हैं और कुछ उनके उत्तरवर्ती १३वीं शतीके अन्तिम चरणमें होनेवाले प्रभाचन्द्रको इस टीकाका कर्ता मानते हैं। इसका विशेष ऊहापोह हमने अन्यत्र किया है। संस्कृत-टीकाके अतिरिक्त आत्मानुशासन पर तीन हिन्दी टीकाएँ और एक मराठी टीका, ये चार टीकाएँ लिखी गयी हैं। इनमें सबसे प्राचीन पण्डित टोडरमलजी की हिन्दी-टीका है, जो राजस्थानकी ढूँढारी हिन्दीमें है और जो प्रकाशित भी हो चुकी है । दूसरी हिन्दी-टीका पण्डित वंशीधरजी शास्त्री सोलापुर द्वारा रची गयी है। यह हिन्दी-टीका खड़ी बोलीमें है और जैन ग्रन्थरत्नाकर, बम्बईसे प्रकाशित हुई है। तीसरी हिन्दीटीका पण्डित बालचन्द्रजी शास्त्री कृत है, जो जीवराज ग्रन्थमाला सोलापुरसे ई० १९६१ में प्रकाशित है। मराठी टीका स्व० ब्र० जीवराज गौतमचन्दजी दोशी सोलापुरने लिखी है, जो प्रायः पंडित टोडरमलजीकी हिन्दी-टीका पर आधत है और जो उक्त जीवराज ग्रन्थमालासे वी०नि० सं० २४३५में प्रकाशित है।। . प्रस्तुतमें समीक्ष्य है-पंडित फूलचन्द्रजी सिद्धान्त शास्त्री द्वारा सम्पादित एवं श्री गणेश वर्णी दि. जैन संस्थान, वाराणसीसे प्रकाशित पंडित टोडरमलकृत ढंढारी हिन्दी टीका सहित आत्मानुशासन । इस संस्करणकी अपनी अन्य विशेषता है। विद्वद्वर पंडित फूलचन्द्रजी ने इसके साथ जो प्रस्तावना दी है, वह विशेष लम्बी तो नहीं है, किन्तु उसमें जिन मुद्दों पर विमर्श किया गया है वह न केवल महत्त्वपूर्ण है, अपितु गम्भीरताके साथ ध्यातव्य भी है। हम यहाँ उन मुद्दोंमेंसे दो-एक मुद्दोंका संकेत करते हैं १. आजकल मिथ्यात्व बन्धका कारण है या नहीं, इस विषयकी चर्चा विशेष हो रही है। जो मिथ्यात्वको बन्धका कारण नहीं मानते उनका समाधान पंडितजीने आगमके विपुल प्रमाण देकर सिद्ध किया है कि आगममें मिथ्यात्वको सबसे सबल बन्धका कारण बतलाया गया है। उनका कहना है कि पहला गुणस्थान मिथ्यात्व है। उसमें जिन १६ प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है उनमें मिथ्यात्व ध्रुवबन्धिनी प्रकृति है। मिथ्यात्वरूप परिणामके साथ उसका बन्ध नियमसे होता ही रहता है। अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाला जीव सम्यक्त्व आदिरूप परिणामोंसे च्युत होकर यदि मिथ्यात्व गुणस्थानमें आता है, तो उसके प्रारम्भसे ही अनम्तानुबन्धी चतुष्कका बन्ध होकर भी एक आवलिकाल तक अपकर्षणपूर्वक उसकी उदय-उदीरणा नहीं होती, ऐसा नियम है। अतः ऐसे जीवके एक आवलि काल तक अनन्तानुबन्धी क्रोधादिरूप परिणामके न होने पर भी मिथ्यात्व परिणाम निमित्तक मिथ्यात्व प्रकृतिका बन्ध होता है । साथ ही शेष १५ प्रकृतियोंका भी यथासम्भव बन्ध होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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