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________________ ६५६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ पांचवीं शंकामें तीसरी प्रतिशंका उठाकर प्रथम पक्षने कहा पर्यायका स्वकाल आनेपर कार्य होता, ऐसा मानकर स्वकालको प्रधानता देते हैं। हम उपादान और निमित्त दोनों कारणोंको प्रधान कहते हैं । अशुद्ध पर्याय स्वपरप्रत्यय आगममें कही है। तब आप परप्रत्ययको गौण क्यों कर देते हैं ? अष्टसहस्री पृ० १०५ में यदि सहकारी कारण अकिंचित्कर हो तो उसका कारण नाम नहीं पड़ सकता है। अतः जबतक निमित्त तदनुकूल व्यापार नहीं करता, तबतक उस उपादानकी विवक्षित कार्यरूप परणति नहीं होती है । अतः कार्यको निमित्ताधीन भी कहा जाये, तो कार्य अपने समयपर ही होता है, यह सिद्धान्त सिद्ध नहीं होता है। इस प्रतिशंका ३ का समाधान करते हुए द्वितीय पक्षने उत्तर दिया कि केवलज्ञान वस्तुस्वरूपका ज्ञापक है; कारक नहीं । कारकसाकल्यमें पाँच समवाय स्वीकृत किये गये हैं। निश्चयनयसे आचार्यांने कहा है-पर्याय स्वयं अपनी कर्ता स्वयं अपना कर्म और स्वयं अपना कार्य है। अतः कर्ता-कर्म-क्रियाके स्वतःसिद्ध होनेपर अन्य सहकारी कारण होते हैं, किन्तु कार्योत्पत्ति सहज स्वभावसे ही होती है। अतः पर्याय अपने क्रमसे अपने समयपर प्रकट होती है। क्योंकि पर्याय वस्तुका अपना सहज धर्म है। यह मोतीमालाकी तरह क्रमसे प्रकट होती रहती है। श्रुतज्ञान उन सब पर्यायोंको नहीं जानता है। इससे पर्यायें अनियत कैसे हो गई ? केवलज्ञानमें प्रकट होनेवाला पर्यायक्रम यथार्थ प्रतिभासित हो रहा है तब केवलज्ञानमें ज्ञात पर्यायोंका अक्रम, माना जाये, तो केवलज्ञान अप्रामाणिक हो जायगा। और केवलज्ञानमें ज्ञात क्रमसे ही पर्यायें होती है, तो क्रमबद्ध परिणमन सिद्ध ही है। इसमें पुरुषार्थहीनता भी नहीं, क्योंकि सिद्धोंकी तरह पदार्थका मात्र ज्ञाता बन जाना सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। मन, वचन, कायको रोकनेमें सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। नियतनय और अनियत नयका अर्थ है गुण हमेशा अनादि अनंत, शाश्वत हैं । पर्याय क्रमशः आती है । यहाँ अस्थिर होनेको अनियत कहा है। जो पांच समवायमेंसे सिर्फ नियतिसे कार्यसिद्धि मानते हैं, उनको गोम्मटसार नियतिवादी मिथ्यादृष्टि कहा है। क्योंकि कार्य पांचों समवायकी उपस्थितिमें होता है । अतः पर्याय नियतक्रम मानना आगमसम्मत है। खानियाँ तत्त्वचर्चा दूसरा भाग शंका ६-उपादानकी कार्यरूप परणतिमें निमित्तकारण सहायक होता है या नहीं ? समाधान-निमित्तकारणको आगममें व्यवहार कारण कहा है, वह निश्चय (वास्तविक) कारण नहीं है। प्रतिशंकाअन्तरंग कारणका अर्थ द्रव्य शक्तिसे है और बहिरंग कारणका मतलब बलाधानमें सहायक होना है। जैसे मिट्टी में घड़े बननेकी शक्ति है, किन्तु कुम्हारकी सहायताके बिना घटका उत्पाद असम्भव है। दोनों कारण मिलनेपर कार्य होता है ? इसका सीधा मतलब है कि कार्यकी उत्पत्तिमें दोनों कारण सहायक हैं; अन्यथा उनमें कारण व्यपदेश करना व्यर्थ ठहरता है । कारण कहते उसे हैं जिससे कार्यकी उत्पत्ति हो । - जैसे-जीवका राग कर्मबन्ध कराता है और कर्मोदयसे रागोत्पत्ति होती है। समयसारमें भी जीवका विकार हेतु अजीव पुद्गल है, ऐसा गाथा १३ की टीकामें कहा है। प्रतिशंका २ का समाधान-उभय हेतुसे कार्य होता है और उसमें यह माना जावे कि निमित्तके अनुसार कार्य होता है, तो अन्तरंग कारण उपादानका कार्य रह जाता है ? प्रथमपक्षके अनुसार व्यवहारकारण समर्थ कारण हआ और अन्तरंग निश्चयकारण अकिंचित्कर सिद्ध होता है। आगममें सहकारी कारण सापेक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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